Book Title: Prachin Jain Itihas 01
Author(s): Surajmal Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 33
________________ मथम भाग। करती थी | अतएव इन्हें अपनी मूख शांत करनेके लिये बड़ी चिंता हुई और व्याकुलचित्त होकर महाराज नाभिरायके पास माये। -, (३) यह समय युगके परिवर्तनका था। कल्पवृक्षोंके नष्ट होनेके साथ ही जल, वायु, आकाश, अग्नि, पृथ्वी आदिके संयोगसे धान्यों के वृक्षों के अंकुर स्वयं उत्पन्न हुए और बढ़कर -फलयुक्त हो गये व फलवाले और अनेक वृक्ष भी उत्पन्न हुए। जल, पृथ्वी, आकाश आदिके परमाणु इस परिमाणमें मिले थे कि उनसे स्वयं ही वृक्षोंकी उत्पत्ति हो गई परन्तु उस समयके मनुष्य इन वृक्षोंका उपयोग करना नहीं जानते थे। (४) महाराजा नाभिरायके पास जाकर उन लोगोंने क्षुधादि दुःखोंको कहा और स्वयं उत्पन्न होनेवाले वृक्षों के उपयोग करनेका उपाय पूछा। (५) महाराजा नाभिरायने उनका डर दूर कर उपयोगमें आसकनेवाले धान्य वृक्ष और फलवृक्षोंको बताया व इनको उपयोगमें लानेका ढंग भी बताया तथा जो वृक्ष हानि करनेवाले थे, जिनसे जीवन में बाधा आती और रोग आदि उत्पन्न हो सस्ते थे उनसे दूर रहने के लिये उपदेश दिया। (६) वह समय कर्मभूमिके उत्पन्न होने का समय था । उस समय लोगोंक पास वर्तन आदि कुछ भी नहीं थे अतएव महा. राना नाभिने उन्हें हाथीके मस्तकपर मिट्टीके थाली आदि वर्तन स्वयं बनाकर दिये च बनानेकी विधि बताई। (७) नाभिरायके समय वालकी नाभिम नाल दिखाई

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