________________
सत्सवण्णासमो संधि जान सकता है ? इसने वनमें सीता देवीका अपहरण किया है।” इसपर मतिसमुद्रने कहा, "मेरी समझ में तो इतना ही आता है कि इतनी सेना पुण्यसे मिलती है। विश्वास कीजिए रावण अब जीत लिया जायगा, अपने मनसे समस्त शंकाएँ निकाल दीजिए। बहुत-से अनुचरोंके साथ, यह जैसे यहाँ
आया है, जैसे ही यह यहाँ भी जा सकता है। अब विभीषण मिल गया है । लंकामें प्रवेश कीजिए। हे राम, समझ लो अब सीता हाथ लग गयी।" विभीषणको राज्य दे दो जिससे वे दोनों आपस में लड़ जॉय । यदि दुश्मनसे दुश्मनके सौ टुकड़े हो सकते हैं, तो हमें महायुद्धसे क्या करना है।॥१-६॥
[११] यह सुनकर हनुमानने, जो कामदेवके समान सुन्दर और लक्ष्मीकी भाँति कान्तिमय था, कहा-हे देव, यह सच है कि इन्द्रको पराजित करनेवाला रावण युद्ध में मेरा शत्र है । परन्तु यह जो विभीषण आया है वह अत्यन्त सज्जन, विनीत, अनीतियोंको दूरसे छोड़ देनेवाला, सत्यवादी और जिनधर्म वत्सल है। छलकी बातें इसने हमेशाके लिए छोड़ दी है ? मुझसे इसने कहा है-मैं वही करूँगा जो रामको प्रिय होगा । यदि राजाने मेरी बात नहीं मानी तो भी शत्र सेनामें जा मिलूँगा।" यह सुनकर रामने दूतको विसर्जित कर उसे बुला भेजा। विभीषण भी अपने परिकरके साथ आया। वह ऐसा जान पड़ रहा था मानो ग्यारहवाँ मंगल नक्षत्र हो।।१-७॥
[१२] विभीषण जय जय शन्दके साथ आकर मिला। दोनोंकी आपसमें बातें हुई | रामने उससे कहा - "मैं तुम्हें शर्मिन्दा नहीं होने दूंगा, तुम समस्त लंकाका भोग करोगे।" रावणका में जीते जी सिर तोड़ दूंगा और उसे यमका अतिथि