Book Title: Parikshamukh
Author(s): Ghanshyamdas Jain
Publisher: Ghanshyamdas Jain

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Page 12
________________ भाषा-अर्य। wnnnwr भावार्थ--बौद्ध अनुमान को पदार्थों को निश्चय करने वाला मानता है, और प्रत्यक्ष को निर्विकल्पक अर्थात् निश्चय रहित मानता है; परन्तु जैनियों ने सब ही प्रमाण अपने तथा पर के निश्चय करने वाले माने हैं । बस, यही दिखलाने को उन्हीं के माने हुए अनुमान का दृष्टान्त दिया है, और सब प्रमाणों को निश्चयात्मक सिद्ध कर दिया है । जो किसी पदार्थ का तथा अपना निर्णग्न निश्चय रूप से नहीं करेगा, वह किस हैसियत से प्रमाण हो सकता है । विरुद्ध अनेक कोटियों को विषय करने वाले ज्ञान को संशय कहते हैं, जैसे यह बगुला है अथवा पताका । विपरीत पदार्थ के जानने वाले ज्ञानको विपर्यय कहते हैं, जैसे सीप में चांदी का ज्ञान होना । रास्ते में जाते हुए तृण स्पर्श वगैरह के ज्ञान को अनध्यवसाय कहते हैं, जैसे कुछ है यह ज्ञान । देखिये, यह तीनों इसी लिए प्रमाण नहीं माने जाते; कि ये अपने विषय का निश्चय नहीं करते हैं। अब अपूर्वार्थ का समर्थन करते हैं । अनिश्चितो पूर्वार्थः ॥ ४॥ भाषार्थ-जिस पदार्थ का पहले कभी किसी सच्चे ज्ञान से निर्णय नहीं हुआ है, उसको अपूर्वार्थ ऐसी संज्ञा दी जाती है, अर्थात् उसी को अपूर्वार्थ कहते हैं। भावार्थ—जो ज्ञान जाने हुए पदार्थ को जानता है, वह प्रमाण नहीं होता, क्योंकि उसने पदार्थ का निश्चय ही नहीं किया; किन्तु निश्चित ही को जाना है।

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