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भाषा-पर्व। .
करने की ज़रूरतही नहीं; कि वह अपने आप को नहीं जानता है।
कहने का तात्पर्य यह हैं, कि सब प्रमाण स्व. तथा पर पदार्थों के स्वरूप के निश्चय करने वाले होते हैं। और इनका वास्तविक पना कहीं (अभ्यास दशा में) स्वतः ही निर्णीत होजाता है और कहीं (अनभ्यास दशा में) परतः निर्णीति होता है । इस प्रकार प्रमाण के स्वरूप का संक्षेप वर्णन किया ।
इति प्रथमः परिच्छेदः ।
अब प्रमाण की संख्या का निर्णय करते हुए प्रत्यक्ष
प्रमाण का निर्णय करते हैं:-- तद्देधा ॥१॥ ..
भाषार्थ-उस प्रमाण के अर्थात् ऊपर के परिच्छेद से निर्णीत प्रमाण के, दो भेद हैं । जैसे:---
प्रत्यक्षेतरभेदात् ॥२॥ भाषार्थ-प्रत्यक्ष, और इतर-परोक्ष ।
प्रत्यक्षप्रमाण का लक्षण । विशदं प्रत्यक्षम् ॥ ३ ॥ भाषार्थ--निर्मल ( स्पष्ट ) ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं।
भावार्थ--प्रत्यक्ष प्रमाण की निर्मलता अनुभव से जानी जाती है । वह अनुभव इस प्रकार होता है । किसी पुरुष को उसके पिता ने अथवा किसी अन्य मनुष्य ने अंग्नि का ज्ञान शब्दो से करवा दिया; तब उस पुरुष ने सामान्य रूप से अग्नि