Book Title: Parikshamukh
Author(s): Ghanshyamdas Jain
Publisher: Ghanshyamdas Jain

View full book text
Previous | Next

Page 68
________________ भाषा - अर्थ ५६ भाषार्थ - इस गुफा में मृगकी क्रीड़ा नहीं है क्योंकि सिंहका शब्द होरहा है अर्थात् सिंह बोल रहा है। जिसप्रकार इस कारणविरुद्धकार्योपलब्धिका विरुद्धकार्योपलब्धि में अन्तर्भाव होता है; उसी प्रकार कार्यकार्यका, अविरुद्ध कार्योपलब्धि में अन्तर्भाव होता है । भावार्थ - कारणविरुद्ध कार्योपलब्धिको इसतरह घटाना चाहिए, कि मृग-कीड़ा के कारण मृग के विरोधी-सिंह-का, शब्दरूप - कार्य पायाजाता है । 9 व्युत्पन्नपुरुषों के लिए प्रयोगका नियम :व्युत्पन्नप्रयोगस्तु तथोपपत्त्याऽन्यथानुपपत्त्यैव वा ॥ ९४ ॥ भाषार्थ - व्युत्पन्न - पण्डित-पुरुषों के लिए, तथोपपत्ति-साध्यके सद्भाव ही साधन का होना-या अन्यथाऽनुपपत्ति-साध्य के प्रभावमें साधन का न होना - इस नियमसे ही प्रयोग करना चाहिये । उसीको उदाहरण - द्वारा पुष्ट करते हैं:अग्निमानयं देशस्तथैव धूमवत्वोपपत्ते धूमवत्वान्यथानुपपत्तेर्वा ॥ ९५ ॥ भाषार्थ - यह प्रदेश अग्निवाला है; क्योंकि तथैव - श्राग्निके सद्भावमें ही यह धूमवाला होसकता है अथवा यह हेतु समझना चाहिए, कि अग्निके अभाव में यह धूमवाला हो ही नहीं सकता है इसलिए इसमें अवश्य अग्नि है । भावार्थ - इसमें यह बात दृढ़की गई है कि विद्वानों के लिए उदाहरण वगैरहके प्रयोगकी आवश्यकता नहीं है ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104