Book Title: Parikshamukh
Author(s): Ghanshyamdas Jain
Publisher: Ghanshyamdas Jain

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Page 101
________________ परीक्षामुख समवायसम्बन्धसे रहेगा, उसीमें कलभी समवायसे रहेगा ; तब तो समवायरूप प्रत्यासत्ति (सम्बन्ध ) से इस प्रमाणका यह फल है ऐसी व्यवस्था होजायगी। आचार्य उत्तर देते हैं: समवायेऽतिप्रसङ्गः ॥ ७२ ॥ भाषार्थ - यदि समवाय मान कर दोष वारण करोगे; तो अतिप्रसंग होजायगा अर्थात् तुम्हारे यहां समवाय नित्य और व्यापक पदार्थ माना गया है फिर उससे यह निर्णय कैसे होगा, कि इसी श्रात्मामें यह प्रमाण अथवा फल, समवायसम्बन्धसे रहता है दूसरी श्रात्मामें नहीं ? भावार्थ - जब समवायं नित्य और व्यापक है अर्थात् मेह और सब जगह रहता है, तो उससे यह निर्णय नहीं हासकता, कि अमुक आत्मा के प्रमाणका यह फल है अन्यका नहीं । अब अपने पक्ष के साधनकी तथा परके पक्षमें दूषण दनेकी व्यवस्थाको दिखाते है:प्रमाणतदाभासा दुष्टतयोद्भावितौ परिहृतापरिहृतदोषौ वादिनः साधनतदाभासौ प्रतिवादिनोदूषणभूषणे च ॥ ७३ ॥ --- भाषार्थ - - वादीने प्रमाण बोला, उसका प्रतिवादीने दुष्टता से उद्भावन कर दिया; पीछे यदि वादीने परिहार कर दिया तो वादी के लिए वह साधन हो जायगा और प्रतिवादी के लिए दूषण हो जायगा । और जब वादोने प्रमाणाभास बोला, उसका प्रतिवादीने दुष्टतासे उद्भावन कर दिया और फिर यदि वादीने उसका

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