Book Title: Parikshamukh
Author(s): Ghanshyamdas Jain
Publisher: Ghanshyamdas Jain

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Page 94
________________ भाषा-मर्थ। अब प्रमाण संख्याभासका वर्णन करते हैं:प्रत्यक्षमेवैकं प्रमाणमित्यादि संख्याभासम् ॥५५॥ भाषार्थ-प्रत्यक्ष ही एक प्रमाण है इत्यादि.५७वें में सूत्रसे कहे हुए सर्व ही सख्याभासं हैं। ..... उसीमें हेतु दिखलाते हैं :___ लोकायतिकस्य प्रत्यक्षतः परलोकादिनिषेधस्य परबुद्ध्यादेश्वासिद्धेरतद्विषयत्वात् ॥ ५६॥ . भाषार्थ-चार्वाकका प्रत्यक्षही एक प्रमाण मानना, इसलिए संख्याभास है कि केवल प्रत्यक्षसे. परलोक श्रादिका निषेध और पर की बुद्धि आदिकी सिद्धि नहीं होसकती है क्योंकि वे प्रत्यक्ष विषय नहीं है । और ऐसा नियम है कि नो जिसको विषय नहीं करता ; वह उसका निषेध तथा विधान भी नहीं कर सकता है। अब उसीको दृष्टान्तसे दृढ़ करते हैं :सौगतसांख्ययोगप्राभाकरजैमिनीयानां प्रत्यक्षानुमानागमोपमानार्थापत्त्याभावैरेकैकाधिकाप्तिवत्५७ भाषार्थ-जिसप्रकार प्रत्यक्ष-अनुमानको श्रादि लेकर एकर अधिक प्रमाणसे सौगत (बौद्ध ) सांख्य, योग, प्राभाकर तथा नैमिनीय, व्याप्ति ( अविनाभाव ) का निर्णय नहीं करसकते हैं, उसीतरह चार्वाक भी एक प्रत्यक्ष प्रमाणसे ही परलोक श्रादिके निषेधको तथा परकी बुद्धि श्रादिकी सिद्धिको, नहीं करसकता है। । भावार्थ-सौगत २ सांख्य ३ योग ४ प्राभाकर ५ और जैमिनीय ६ प्रमाण मानते हैं वे प्रमाण, प्रत्यक्ष अनुमान २

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