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भाषा-अर्थ।
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दूसरा हेतु यह है:-- प्रतिभासभेदस्य च भेदकत्वात् ॥ ६०॥
भाषार्थ--प्रतिभास भेद ही प्रमाणके भेदोंको सिद्धकरता है अर्थात जिसने जितने प्रमाण माने हैं उनसे अधिक प्रमाणोंकी सिद्धि के लिए एक विलक्षण प्रतिभास ही साक्षी है।
भावार्थ-जिन्होंने २-३-४-५-६ इनमेंसे कोईभी संख्यावाले प्रमाण माने हैं उन सबके लिए व्याप्तिको विषय करनेवाला तर्कप्रमाण, प्रतिभास भेदसे अर्थात् विलक्षण प्रतिभास होनेसे मानना ही पड़ेगा; क्योंकि प्रतिभास भेदसे ही प्रमाणोंका भेद माना जाता है ।
इसप्रकार संख्याभासका वर्णन हुआ। अब प्रमाण-विषयाभासका स्वरूप कहते हैं:विषयाभासः सामान्यं विशेषो व्यं वा स्वतन्त्रम् ॥ ६१॥
भाषार्थ-केवल सामान्य (द्रव्य) को ही अथवा केवल विशेष (पर्याय ) को ही अथवा दोनोंरूप पदार्थको मानकरभी स्वतन्त्रतासे एक २ को प्रमाणका विषय मानना, विषयाभास है।
भावार्थ-सांख्य, पर्यायरहित केवल द्रव्य ( सामान्य ) को ही और बौद्ध द्रव्यांश रहित केवल पर्याय (विशेष ) को ही प्रमाणका विषय मानते हैं तथा नैयायिक और वैशेषिक सामान्य और विशेष स्वरूप पदार्थको मानकर भी, सामान्य तथा विशेषको एक दूसरेकी सहायता रहित स्वतन्त्रतासे प्रमाणका विषय.मानते है । परन्तु प्रमाण का विषय ऐसा है नहीं ; इसलिए वे सब विषयाभास हैं।