Book Title: Parikshamukh
Author(s): Ghanshyamdas Jain
Publisher: Ghanshyamdas Jain

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Page 71
________________ परीक्षामुख भाषार्थ-जैसे मेरु अादिक हैं। . .. भावार्थ-जिसप्रकार मेरुशब्दके कहनेमात्रसे ही जम्बूद्वीपके मध्यवाले सुमेरुका ज्ञान होजाता है। इसीप्रकार सबजगह जाननाचाहिए। तीसरेपरिच्छेदका सारांश । अविशदप्रतिभासवाले ज्ञानको परोक्षप्रमाण कहते हैं और वह अविशदता दूसरे ज्ञनोंकी सहायता लेनेसे आजाती है। भावार्थ-जो ज्ञान दूसरे ज्ञानकी सहायता लेता है वह परोक्ष कहाजाता है। उसके पांचभेद हैं। स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और भागमोमिनके लक्षण और भेद पहले कहे माचुके हैं। बस ; इस परिच्छेदमें इन पांचोंका, या यों कहिये कि; परोक्षप्रमाणका वर्णन है। इसप्रकार परोक्षप्रमाणका वर्णन हुआ। इति तृतीयः परिच्छेदः। अब प्रमाणके विषयका निर्णय करते हैं :सामान्यविशेषात्मा तदर्थों विषयः ॥१॥ भाषार्थ—सामान्य और विशेषस्वरूप अर्थात् द्रव्य-पर्याय स्वरूप पदार्थ, प्रमाणका विषय होता है। - भावार्थ द्रव्यके बिना पर्याय और पर्यायके विना द्रव्य किसी भी प्रमाणका विषय नहीं होता है; किन्तु द्रव्यपर्यायरूप पदार्थ, प्रमाणका विषय होता है। एक २ को प्रमाणका विषय माननेमें बहुतसे दोष श्राते हैं जिनका कि अष्टसहस्त्रीमें पूर्ण खुलासा दिया है ।

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