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अकिश्चित्कर कहे जाते हैं इसीप्रकार ऊपरके सूत्रमें जानना चाहिए । अकिञ्चित्करहेत्वाभासके प्रयोगकी उपयोगिता:
लक्षणे एवासौ दोषो व्युत्पन्नप्रयोगस्य पक्षदोषेणैव दुष्टत्वात् ॥ ३८॥
भाषार्थ-हेतुके लक्षणके विचारके समय में ही अकिञ्चित्कर नामका दोषं देना चाहिए, वादकालमें नहीं । क्योंकि व्युत्पन्न पुरुषोंका प्रयोग, पक्षके दोषोंसे ही दुष्ट होजाता है ।
हेत्वाभासोंका सारांश । झूठे हेतुको हेत्वाभास कहते हैं उसके चार भेद हैं असिद्ध, विरुद्ध, अनकान्तिक और अकिञ्चित्कर । जिनमें श्रसिद्धके भी दो भेद हैं एक स्वरूपासिद्ध दूसरा सँदिग्वासिद्ध । उनमें जिसके अभावका निश्चय हो उसको स्वरूपासिद्ध कहते हैं और जिसके सद्भावमें सन्देह हो उसको संदिग्वासिद्ध कहते हैं। साध्यसे विपरीत धर्मके साथ जिसकी व्याप्तिका निश्चय हो उसको विरुद्ध कहते हैं
और विपक्षम भी जो रहजाय उसको अनैकान्तिक ( व्यभीचारी) कहते हैं उसके भी “जिसका विपक्ष में रहना निश्चित हो वह निश्चितव्यभिचारी, और जिसका विपक्षमें रहना शंकित हो वह शंकित व्यभिचारी, ऐसे दो भेद हैं और जो हेतु, साध्यकी सिद्धिमें कुछ भी मदद न देसकें उस हेतुको श्रीकञ्चित्कर कहते हैं।
- अन्वयदृष्टान्ताभासके भेद:- .. दृष्टान्ताभासा अन्वयेऽसिद्धसाध्यसाधनोभयाः ॥४०॥