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. . भावार्थ-जो ज्ञान अपने स्वरूपको नहीं जानता, उसको अस्वसंविदित तथा जो ज्ञान किसी सच्चे ज्ञानद्वारा जाने हुए पदार्थ को जानता है, उसको गृहीतार्थ, और निर्विकल्पकज्ञान अर्थात् जिससे यह घट है यह पट है ऐसा निश्चय नहीं होता, उस ज्ञानको दर्शन कहते हैं । संशय आदिकका स्वरूप पहले कहा जाचुका है । ये सब ही प्रमाणाभास अर्थात् झूठेज्ञान हैं ।
इनको प्रमाणाभास कहनेमें हेतु:... स्वविषयोपदर्शकत्वाभावात् ॥ ३ ॥
भाषार्थ-क्योंकि ये अपने विषयका निश्चय नहीं कराते हैं।
भावार्थ-अपने विषयमें अज्ञानकी निवृत्तिरूप फलको पैदा करनेवाले ज्ञानको प्रमाण कहते हैं परन्तु उपर्युक्तफंठे ज्ञानोंसे अज्ञान नहीं हटता है, इसलिए वे प्रमाण नहीं हो सकते हैं। ___ इसी बातको दृष्टान्तोंसे दृढ़ करते हैं:
पुरुषान्तरपूर्वार्थगच्छत्तृणस्पर्शस्थाणुपुरुषादि ज्ञानवत् ॥४॥ -
भाषार्थ-दूसरे पुरुषके ज्ञानकी भांति, अस्वसंविदितज्ञान, तथा पूर्थि अर्थात् जानेहुए पदार्थके ज्ञानकी तरह, गृहीतार्थज्ञान,
और चलतेहुए पुरुषके तृणस्पर्शके ज्ञानकी तुल्य, दर्शन तथा यह स्थाणु है वा पुरुष, ऐसे ज्ञानकी तरह संशयज्ञान, अपने २ विषय को यथार्थपनेसे विषय नहीं करते हैं आदि पदसे सीपमें चांदीके ज्ञानकी नॉई विपर्ययज्ञान और चलतेहुए तृणस्पर्शके ज्ञानकी नॉई
अनध्यवसाय भी अपने विषयको निश्चयरूपसे नहीं जानते हैं इस . लिए वे प्रमाणाभास हैं।