Book Title: Parikshamukh
Author(s): Ghanshyamdas Jain
Publisher: Ghanshyamdas Jain

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Page 21
________________ ૨૨ . परीक्षामुख को जाना। और उसके पश्चात् किसी मनुष्य ने धूम से अग्नि का ज्ञान करवाया, तब भी उस पुरुष ने जिस जगह पर धूम था उस जगह विशिष्ट बन्हि को जाना । इसके बाद किसी तीसरे मनुष्य ने अग्नि का जलता हुआ अंगार लाकर उसके सामने रख दिया, तब उस पुरुष को बिल्कुल निर्मल (स्पष्ट) ज्ञान हो गया, कि इस प्रकार, ऐसे रंग की, गर्म अग्नि होती है। बस, इस प्रत्यक्ष में पहले हुए दो ज्ञानों से जो विशेषता है उसी को निर्मलता कहते हैं, और जो ज्ञान निर्मल होता है उसी को प्रत्यक्ष कहते हैं। इसी वैशय को आचार्य ने कहा है:प्रतीत्यन्तराव्यवधानेन विशेषवत्तया वा प्रतिभा. सनं वैशद्यम् ॥ ४॥ भाषार्थ-दूसरे ज्ञान की सहायता के विना होने वाले, तथा पदार्थों के आकार, वर्ण आदि की विशेषता से होने वाले, प्रतिभास को वैशद्य ( विशदता ) कहते हैं । भावार्थ-जो ज्ञान अपने स्वरूप के लाभ करने में दूसरे ज्ञानों की सहायता चाहते हैं, वे ज्ञान परोक्ष कहे जाते हैं, जैसे स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान, तथा अागम । और जो दूसरे ज्ञानों की सहायता नहीं चाहते हैं, वे प्रत्यक्ष कहे जाते हैं, और . उनमें जो ख़ासियत होती है उस को विशदता-वैशद्य, निर्मलता वा स्पष्टता कहते हैं। उस प्रत्यक्ष के दो भेद हैं । एक सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष, दूसरा पारमार्थिक प्रत्यक्ष (मुख्यप्रत्यक्ष )।

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