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परीक्षामुख
फिर जो सन्निकर्ष वगैरह को प्रमाण मानते हैं, उनको घट भी प्रमाण ही मानना पड़ेगा । परन्तु ऐसा वे मानते नहीं हैं । इस लिए सन्निकर्ष को भी घट की तरह अप्रमाण मानना पड़ेगा । दूसरी बात यह है. कि सन्निकर्ष वगैरह जड़ पदार्थों से जीवों के इष्ट की सिद्धि तथा अनिष्ट का परिहार नहीं हो सकता ; इस कारण से भी वे प्रमाण नहीं है । यह बात निर्विवाद सिद्ध है, कि सब जीव हित की प्राप्ति और अहित के परिहार के लिए ही प्रमाण को खोजते हैं। इससे सिद्ध हुआ, कि ज्ञान ही प्रमाण होता है अन्य नहीं । वह ज्ञान जिस पदार्थ को जानता है वह ऐसा होना चाहिए जिसको कि पहले किसी सच्चे ज्ञान ने नहीं जाना हो, और अगर जाना भी हो, तो उसके बाद किसी झंठे ज्ञान ने फिर भम कर दिया हो, उस पदार्थ का नाम है अपूर्वार्थ, और उसके जानने वाले ज्ञान का नाम होता है सच्चा ज्ञान, अथवा प्रमाण । उस ज्ञान में अपू वार्थ जानने के समय केवल अर्वार्थ का ही प्रतिभास नहीं होता; किन्तु अपने आप का भी होता है, इस लिए ही वास्तविक में वह सच्चा है कि अपने को जानता है, और पर को भी जानता है; क्योंकि जो अपने आपही अन्धा है वह दूसरे पुरुष को रास्ता नहीं बतला सकता है, और यदि बतलावेगा तो उल्टा मार्गही बतलावेगा, जिससे वेचारा पथिक मारा मारा फिरेगा । ठीक इसी प्रकार जो ज्ञान अपने आपको नहीं जानता, वह दूसरे पदार्थ को निश्चित नहीं जान सकता है, और यदि जानेगा तो संशय आदि की तरह उल्टा ही जानेगा, जिस से ज्ञाता को लाभ के बदले हानि उठानी पड़ेगी । इस बात को दीपक, रत्न. सूर्य, चन्द्रमा वगैरह दृष्टान्त भली भाति पुष्ट कर रहे हैं ; कि जो दूसरे का प्रकाशन करता है, वह अपना प्रकाशन तो करताही है; इस में हस्तक्षेप