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परीक्षामुख
उस प्रमाण के प्रामाण्य का निर्णय करते हैं:
तत्प्रामाण्यं स्वतः परतश्च ॥
१३ ॥ भाषार्थ — उस प्रमाण ( सच्चे ज्ञान ) के प्रामाण्य अर्थात् वास्तविकपने (जैसा पदार्थ है उसको वैसाही जानने ) का दो प्रकार से निर्णय होता है । अर्थात् अभ्यास दशा में अपने आप (किसी अन्य पदार्थ की सहायता विना) ही निर्णय हो जाता है, और अनभ्यास दशा में अन्य कारणों की सहायता से निर्णय होता है ।
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भावार्थ — जहां निरन्तर जाया आया करते हैं वहा के नदी तालाब आदि स्थान परिचित होजाते हैं, इसी को अभ्यास दशा कहते है । बस, उस जगह स्वतः ही प्रामाण्य का निर्णय (जानपना) होजाता है, और जहाँ कभी गये आये नहीं, वहाँ के नदी तालाब आदि परिचित नहीं होते हैं, इसको अभ्यास दशा कहते हैं. बस, ऐसी हालत में दूसरे कारणों से ही प्रामाण्य का निर्णय होता है।
इसी को दृष्टान्त से पुष्ट करते हैं । कोई पुरुष निरन्तर ही शिवपुर जाया करता है, और वहां के रास्ते में जितने कूप तड़ाग वगैरह आते हैं. सब को भली भांति जानता है । फिर वह जब २ जाता है तब २ पूर्व के परिचित चिन्हों को देखते ही जान लेता है कि यहां जल है, और उन्हीं चिन्हों से यह भी जान लेता है, कि मुझे जो ज्ञान हुआ है वह बिल्कुल ही ठीक है । इसमें यही प्रमाण है; कि वह ज्ञान होने के बाद ही शीघ्रता से कुएँ में वा तालाब में लोटा डोबने लग जाता है । अगर उसे अपने ज्ञान की सचाई नहीं होती तो कभी ऐसा नहीं कर सकता था; इससे मालूम होता है कि अभ्यास दशा में स्वतः ही प्रामाण्य का निर्णय