Book Title: Parikshamukh
Author(s): Ghanshyamdas Jain
Publisher: Ghanshyamdas Jain

View full book text
Previous | Next

Page 16
________________ भाषा-कार्य। ७ भाषार्थ-लौकिक अथवा परीक्षक कौन ऐसा पुरुष है जो ज्ञान से प्रतिभासित हुए पदार्थों को तो प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय माने, परन्तु स्वय ज्ञान को प्रत्यक्ष न माने, अर्थात् सर्व ही मानेगे, कि जब ज्ञान दूसरों का प्रत्यक्ष करता है तो अपना भी करता होगा । यदि अपने को न जानता होता, तो दूसरे पदार्थों को भी न जान सकता, जैसे घट वगैरह अपने को नहीं जानते, इसी लिए दूसरों को भी नहीं जानते हैं। भावार्थ-जो यह कहेगा, कि मैं घट का प्रत्यक्ष कर रहा हूँ। उसको “मैं” इस शब्द के वाच्य ज्ञान का भी प्रत्यक्ष मानना ही पड़ेगा। इसी को दृष्टान्त से पुष्ट करते हैं:प्रदीपवत् ॥ १२॥ भाषार्थ-जैसे दीपक घट पट श्रादि दूसरे पदार्थों को प्रकाशित करता हुआ अपने श्राप (दीपक ) को भी प्रकाशित करता है, वैसे ही ज्ञान, घट पट श्रादि को जानता हुश्रा अपने श्राप ( ज्ञान ) को भी जानता है। भावार्थ-यदि दीपक अपने श्राप को प्रकाशित न करता; तो घट पट के प्रकाशक दीपक के ढूँढ़ने के लिए दूसरे दीपक की आवश्यकता होती ; परन्तु होती नहीं है। इस से सिद्ध होता है कि दीपक स्त्र और पर का प्रकाशक है, इसी प्रकार ज्ञान भी स्त्र और पर का प्रकाशक है। इसमें कोई सन्देह नहीं है, क्योंकि सर्वत्र दृष्ट पदार्थों से ही अदृष्ट पदार्थों की कल्पना की जाती है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104