Book Title: Parikshamukh
Author(s): Ghanshyamdas Jain
Publisher: Ghanshyamdas Jain

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Page 32
________________ भाषा-बर्य। प्रहरू किया था, उसी वस्तु को एकत्व, सादृश्य तथा वैलक्षण अादि धर्मों में से किसी विवक्षित एक धर्म से विशिष्ट ग्रहण करता है। इसी कारण जब जिस धर्म से विशिष्ट वस्तु को ग्रहण करता है तब उसका नाम भी वैसा ही हो जाता है । जैसे कि ऊपर लिखे हैं। अब उन्हीं प्रत्यभिज्ञानों के दृष्टान्त दिखाते हैं :यथा स एवायं देवदत्तः ॥६॥ गो सहशो गवयः ॥७॥ गो विलचणो महिषः ॥८॥ इदमस्मादरम् ॥६॥ वृक्षोऽयमित्यादि ॥१०॥ भाषार्थ—जैसे कि यह वही देवदत्त है, यह रोम उस गौ के समान है, यह भैसा उस गौ से विलक्षण ( भिन्न) ही है, यह प्रदेश उस प्रदेश से दूर है, जो हमने पूर्व सुना था वह यही वृक्ष है, इत्यादि और भी प्रत्यभिज्ञान अपनी बुद्धि से नान लेना चाहिए। . भावार्थ-ऊपर के दृष्टान्त, कम से एकत्व, सादृश्य, वैलक्षण्य तथा प्रातियोगिक प्रत्यभिज्ञान के जानना चाहिए । तर्कप्रमाण के कारण व स्वरूप । उपलम्भानुपलम्भनिमितं व्याप्तिज्ञानमूहः ॥१०॥ भाषार्थ-ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम के अनुसार, साध्य और साधन के, एकवार अथवा वार २ किए हुए. दृढ़ निश्चय और अनिश्चय से होने वाले, व्याप्ति (महां २ धूम होता है वहां २

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