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साध्य का स्वरूप। इटमवाधितमलिई साध्यम् ॥ २० ॥
भाषार्थ-जो वादी को इष्ट अर्थात् अभिप्रेत हो तथा प्रत्यक्ष प्रादिक प्रमाणों से बाधित न हो, और सिद्ध न हो, उसको साध्य कहते हैं।
भावार्थ-जिसको वादी सिद्ध करना चाहता है तथा जिसमें प्रत्यक्ष वगैरह प्रमाणों से बाधा न पाती हो, और नो सिद्ध न हो, क्योंकि सिद्ध को साधने से कोई फल नहीं होता है, उसको साध्य कहते हैं। अव ऊपर के कहे हुए 'असिद्ध ' विशेषण का फल
दिखाते हैं:संदिग्धविपर्यस्ताव्युत्पन्नानां साध्यत्वं यमा स्यादित्यसिद्धपदम् ॥ २१ ॥
भाषार्थ-साध्य को प्रसिद्ध विशेषणा इस लिए दिया है, कि जिसमें संदिग्ध, विपर्यस्त तथा अव्युत्पन्न पदार्थ भी साध्य हो सकें।
भावार्थ-संदिग्ध अर्थात् संशय ज्ञान का विषय पदार्थ, तथा विपर्यस्त अर्थात् विपरीत ज्ञान का विषय पदार्थ, और अव्युत्पन्न अर्थात् अनध्यवसाय ज्ञान का विषय पदार्थ, इन सभों को साध्य बना सकें; इस लिए साध्य, प्रसिद्ध होना चाहिए अर्थात् जो प्रसिद्ध होता है उसको साध्य कहते हैं-यह कहा है,।