Book Title: Parikshamukh
Author(s): Ghanshyamdas Jain
Publisher: Ghanshyamdas Jain

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Page 59
________________ परीक्षामुख नहीं जाते. हैं जैसे बन्ध्यास्त्री का पुत्र । बस; उसीतरह शब्द कृतक होता है इसी कारण परिणामी होता है । ५० 66 भावार्थ – यहां अनुमानके वे पांच अवयव ( अंग ) बतलाए गये हैं जिनकी बालव्युत्पत्ति के लिए आचार्यने प्रतिज्ञाकी थी । परिणामी ( पक्ष या प्रतिज्ञा ) कृतक ( हेतु ) घट ( अन्वयदृष्टान्त ) तथा वन्ध्यापुत्र ( व्यतिरेकदृष्टान्त ) और दोनों दृष्टान्तों के बाद यह कृतक है' ( उपनय ) और " कृतक होने से परियह निगमन है । यहां परिणामी साध्यसे श्रविरुद्धव्याप्य कृतकत्वकी उपलब्धि है । जो अल्पदेशमें रहें उसको व्याप्य कहते हैं और जो बहुत देशमें रहें उसे व्यापक कहते हैं । अब देखिए, कि परिणामित्व तो बिना किये हुए आकाशादि द्रव्यों में रहने से व्यापक है और कृतकत्व केवल पुद्गलद्रव्यमें रहनेसे व्याप्य है । भावार्थ । केवल पुगलद्रव्यमें ही परिणामीपना और कृतकपना साथ रहते हैं अन्य द्रव्यों नहीं । " अविरुद्धकार्योपलब्धिका उदाहरण । अस्त्यत्र देहिनि बुद्धि व्याहारादेः ॥ ६६ ॥ भाषार्थ — इस प्राणी में बुद्धि है क्योंकि बुद्धिक कार्य वचन आदि पाये जाते हैं। यहां बुद्धि साध्य, और वचनादि हेतु है । भावार्थ-यहाँ बुद्धि के विरुद्धकार्य, वचनादिककी उपलब्धि है । विरूद्धकरणोपलब्धिका उदाहरण । अस्त्यत्र छाया छत्रात् ॥ ६७ ॥ भाषार्थ — यहां छाया है क्योंकि छत्र मौजूद है |

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