Book Title: Parikshamukh
Author(s): Ghanshyamdas Jain
Publisher: Ghanshyamdas Jain

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Page 63
________________ परीक्षामुख भावार्थ-उसतरफके भागके सद्भावका साथी मौजूद है अतः वह उसके सद्भावकोही कहेगा, कि उसतरफका भागभी मौजूद है । अब प्रतिषेधसाधिकाअविरुद्धानुपलब्धिका वर्णन करते हैं : - ‘अविरुद्धानुपलब्धिः प्रतिषेधे सप्तधा स्वभावव्यापककार्यकारणपूर्वोत्तरसहचरानुपलम्भभेदात्॥८॥ भाषार्थ-प्रतिषेव (गैरमौजूदगी ) की साधिका अविरुद्धा. नुपलब्धिके सातभेद हैं। अविरुद्धस्वभावानुपलब्धि, अविरुद्धव्यापकानुपलब्धि, अविरुद्धकार्यानुपलब्धि, अविरुद्धकारणानुपलब्धि, अवि. रुद्धपूर्वचरानुपलब्धि, तथा अविरुद्धोत्तरचरानुपलब्धि, और अविरुद्धसहचरानुपलब्धि । भावार्थ-यहांपर आप जिसका प्रतिषेध करना चाहते हैं उसीका अविरुद्धपना कहनेकी विवक्षा है । अविरुद्धस्वभावानुपलब्धिका उदाहरण । नास्त्यत्र भूतले घटोऽनुपलब्धेः ॥ ७९ ॥ भाषार्थ-इस भूतलमें घट नहीं है क्योंकि उसके स्वभाव (उपलब्ध होनेकी योग्यता ) का अभाव है। भावार्थ-घटके प्राप्तहोनेरूपस्वभावका भूतलमें अभाव है इसलिए वह घटके अभावको सिद्धकरता है। बस ; यहां प्रतिषेध करने योग्य घटके, अविरुद्धस्वभावका अनुपलम्भ-अभाव-लियागया है । अविरुद्धव्यापकानुपलब्धिका उदाहरण । नास्त्यत्र शिंशपा बृक्षानुपलब्धेः ॥ ८०॥ ..

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