Book Title: Parikshamukh
Author(s): Ghanshyamdas Jain
Publisher: Ghanshyamdas Jain

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Page 39
________________ परीचामुख भाषार्थ--धर्मी ( पक्ष ) प्रसिद्ध होता है। भावार्थ-वह प्रसिद्धता कहीं प्रमाण से, तथा कहीं विकल्प से और कहीं प्रमाणीवकल्प से होती है। विकल्पसिद्ध धर्मी में साध्य का नियम :विकल्पसिद्धे तस्मिन् सत्तेतरे साध्ये ॥ २८ ॥ भाषार्थ--विकल्प सिद्ध धर्मी में सत्ता ( अस्तित्व = मौजूदगी) तथा असत्ता (गैरमौजूदगी ) दो ही साध्य होते हैं । यह नियम है। भावार्थ--जिस पक्ष का न तो किसी प्रमाण से अस्तित्व सिद्ध हो, और न नास्तित्व सिद्ध हो, उस पक्ष को विकल्पसिद्ध कहते हैं । वही न्यायदीपिका में लिखा है कि-" अनिश्चित प्रामाण्याप्रायाण्यप्रत्ययगोचरत्वं विकल्पसिद्धत्वम् ” । उन दोनों साध्यों के दृष्टान्त एवं हैं:अस्ति सर्वज्ञो नास्ति खरविषाणम् ॥२६॥ भाषार्थ—सर्वज्ञ है तथा खरविषाण (गधे का सींग) नहीं है। भावार्थ-सर्वज्ञ है, यहां पर सर्वज्ञ पक्ष विकल्पसिद्ध है; क्योंकि अभी तक सर्वज्ञ का प्रभाव और सद्भाव दोनों ही सिद्ध नहीं हैं । 'सर्वज्ञ है' इस में, "क्योंकि उसका कोई बाधक प्रमाण नहीं है" यह 'हेतु' समझना चाहिए। खरीवषाण नहीं है यहां पर "प्राप्त होने योग्य होकर भी वह पाया नहीं जाता,, यह 'हेतु' जानना चाहिए, और यह भा पक्ष विकापसिद्ध झा है।

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