Book Title: Parikshamukh
Author(s): Ghanshyamdas Jain
Publisher: Ghanshyamdas Jain

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Page 49
________________ १ . परीचामुख समर्थन वा वरं हेतुरूपमनुमानावयवो वास्तु साध्ये तदुपयोगात् ॥ ४५ ॥ भाषार्थ—समर्थन ही वास्तविक हेतु का स्वरूप है और वही अनुमान का अंग है; क्योंकि साध्य की सिद्धि में उसी का उपयोग होता है। . भावार्थ- जब समर्थन ही साध्य की सिद्धि करा देता है; तो हेतु को बोलकर उसी का समर्थन करना ही कार्यकारी हुआ, अन्य ( उदाहरण आदिक) नहीं । दोषों का प्रभाव दिखाकर हेतु के पुष्ट करने को समर्थन कहते हैं । हेतु के दोष आगे कहे जावेंगे । मन्दबुद्धिवाले विद्यार्थियों को समझाने के लिए उदाहरण, उपनय और निगमन का प्रयोग करना जैनी लोग मानते हैं । सो ही कहते हैं : बालव्युत्पत्त्यर्थं तत्त्रयोपगमे शास्त्र एवासौ न वादेऽनुपयोगात् ॥ ४६॥ भाषार्थ-बालकों को समझाने के लिए उदाहरण, उपनय और निगमन की स्वीकारता शास्त्र में ही है वाद में नहीं ; क्योंकि वाद करने का विद्वानों को ही अधिकार होता है, इसलिए वहां ( वाद में ) उदाहरण श्रादिक का प्रयोग उपयोगी नहीं । भावार्थ-वाद के अधिकारी विद्वान् लोग, पहले से ही व्युत्पन्न रहते हैं फिर उनके लिए उदाहरण श्रादिक की श्रावश्यकता ही क्या ? कुछ नहीं ।

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