Book Title: Parikshamukh
Author(s): Ghanshyamdas Jain
Publisher: Ghanshyamdas Jain

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Page 56
________________ भाषा-अर्थ। कारण रूप हेतु स्वयं माना ही है जहाँ पर कि कारण की साम र्थ्य (शक्ति) का प्रतिबन्ध ( रुकावट ) नहीं होगा; तथा अन्य किसी कारण की कमी नहीं होगी। भावार्थ-जहाँ कारण की शक्ति माण मन्त्र वगैरह से रोक दी जायगी अथवा किसी सहाई कारण की कमी होगी, वहां कारण, कार्य का गमक अर्थात् जनाने वाला नहीं होगा । और दूसरी जगह तो अवश्य ही होगा। इसी प्रकार पूर्वचर और उत्तरचर हेतु भी भिन्न ही हैं; क्योंकि उनका किसी भी हेतु में अन्तभाव नहीं होता है । सोही दिखाते हैं : न पूर्वोत्तरचारिणोस्तादात्म्यं तदुत्पत्सिर्वा कालव्यवधाने तदनुपलब्धेः ॥ ६१ ॥ __ भाषार्थ-पूर्वचर तथा उत्तरचर हेतुओं का साध्य के साथ तादात्म्य सम्बन्ध नहीं है अतः स्वभाव हेतु में अन्तर्भाव नहीं होता है तथा तदुत्पत्तिसम्बन्ध भी नहीं है अतः कार्य और कारणहेतु में भी अन्तर्भाव नहीं होता है । ये दोनों क्यों नहीं ? इस का उत्तर यह है, कि काल के व्यवधान ( फासले ) में ये दोनों सम्बन्ध होते नहीं हैं। भावार्थ-इन दोनों हेतुओं में साध्य से अन्तर्मुहूर्त काल का व्यवधान ( फासला ) रहता है इस लिए इन में कार्य और कारण की नाई तदुत्पत्तिसम्बन्ध नहीं है तथा स्वभाव और स्वभावी की नाई तदात्म्यसम्बन्ध नहीं है।

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