Book Title: Parikshamukh
Author(s): Ghanshyamdas Jain
Publisher: Ghanshyamdas Jain

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Page 52
________________ भाषा-अर्थ। भाषार्थ-एक स्वार्थानुमान दूसरा परार्थानुमान । स्वार्थानुमान का स्वरूप। स्वार्थमुक्तलक्षणम् ॥ ५४ ॥ भाषार्थ-“साधनात्साध्यविज्ञानमनुमान” इस सूत्र से कहा हुआ ही, स्वार्थानुमान का लक्षण है। भावार्थ-दूसरे के उपदेश विना स्वतः हुए, साधन से साध्य के ज्ञान को स्वार्थानुमान कहते हैं । परार्थानुमान का स्वरूप । परार्थं तु तदर्थपरामार्शवचनाज्जातम् ॥५५॥ भाषार्थ-स्वार्थानुमान के विषय, साध्य और साधन को कहने वाले वचनों से उत्पन्न हुए ज्ञान को, परार्थानुमान कहते हैं। भावार्थ-किसी पुरुष को स्वार्थानुमान हुअा कि यहाँ धूम है इस लिए अवश्य अग्नि होगी; क्योंकि अग्नि के विना धूम हो ही नहीं सकता । फिर वह अपने शिष्य को समझाने के लिए कहता है कि जहां धूम होता है वहां अवश्य अग्नि होती है इसी प्रकार यहां धूम है इसलिए यहां भी बह्नि होनी आवश्यक है। बस वह (शिष्य ) समझ लेता है। अब उसको नो ज्ञान हुआ है उसी को परार्थानुमान कहते हैं। क्योंकि परार्थानुमान का लक्षण घट गया, गुरु को स्वार्थानुमान हुअा था और उसके • विषय थे साध्य ( अग्नि) और साधन (धूम ) । बस; उन्हीं को गुरु ने कहा; फिर गुरु के वचनों से शिष्य को साध्य का साधन ( से शान हुश्रा ।

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