Book Title: Parikshamukh
Author(s): Ghanshyamdas Jain
Publisher: Ghanshyamdas Jain

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Page 18
________________ भाषा कार्य । होता है । और एक दूसरा पुरुष पहले ही शिवपुर गया, और रास्ते में जैसे अन्य जलाशयों पर चिन्ह होते हैं, वैसे चिन्ह देखे । तब उसे यह ज्ञात हुआ कि यहां जल है ; परन्तु यह निर्णय नहीं कर सका कि किस ख़ास स्थान पर है अर्थात् दस गज़ इस तरफ है या उस तरफ | इसके बाद जब वह देखता है, कि अमुकी ओर से स्त्रियाँ पानी लिए श्रा रही हैं, अथवा कोई सुगन्धि वायु आ रही है । तब वह कहता है कि यह मेरा जल-ज्ञान सच्चा है यदि सच्चा न होता; तो ये स्त्रियाँ जल लेने को भी नहीं आतीं । फिर वह दस गज़ जाकर कुएँ में लोटा डोब कर पानी भर लेता है । पाठको ! उसका पहला ज्ञान यद्यपि सच्चा था, परन्तु उस सचाई का निर्णय दूसरे ही कारणों से हुआ । इससे मालूम होता है कि अनभ्यास दशा में परतः प्रामाण्य का निर्णय होता है । प्रथम परिच्छेद का सारांश | सम्पूर्ण ज्ञान स्व तथा पर के जानने वाले होते हैं अर्थात् अपने स्वरूप तथा पर, घट पटं श्रादिक पदार्थों के, स्वरूप के निश्चय करने वाले होते हैं । तब ही उनमें सच्चापना श्राता है अर्थात् इसी कारण से वह प्रमाण कहे जाते हैं, और जिनमें स्व और पर पदार्थों के निश्चय करने की सामर्थ्य नहीं हैं, वे ज्ञान सच्चे अर्थात् प्रमाण नहीं होते हैं, जैसे संशयज्ञान, विपर्ययज्ञान और अध्यवसाय । इन का स्वरूप पहले कहा जा चुका है । और इसी कारण से सन्निकर्ष तथा इन्द्रियव्यापार आदिक प्रमाण नहीं हो सकत हैं; क्योंकि वे जड़ हैं अर्थात् चेतना रहित हैं; इस लिए जैसा घट, तैसे ही वे । दोनों में कोई मी फ़र्क नहीं है,

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