Book Title: Parikshamukh
Author(s): Ghanshyamdas Jain
Publisher: Ghanshyamdas Jain

View full book text
Previous | Next

Page 13
________________ परीक्षामुख परन्तु यह भी एकान्त नहीं है:दृष्टोऽपि समारोपात्ताहक् ॥५॥ भाषार्थ-जो पदार्थ पहले किसी प्रमाण से निश्चित हो चुका है, उस में यदि संशय श्रादि कोई एक भी झंठा ज्ञान होजाय, तो वह भी अपूर्वार्थ कहा जायगा, और उसका जाननेवाला ज्ञान भी प्रमाण स्वरूप होगा। अब स्व-व्यवसाय का समर्थन करते हैं:स्वोन्मुखतया प्रतिभासनं स्वस्य व्यवसायः ॥६॥ भाषार्थ-अपने श्राप के अनुभव से होने वाले प्रतिभास को स्वव्यवसाय अर्थात् स्वरूप का निश्चय कहते हैं । भावार्थ-जब आत्मा किसी पदार्थ के जानने को व्यापार करता है तब "मैं उसको जानता हूँ' ऐसी प्रतीति होती है । बस, उस प्रतीति में "मैं" शब्द करके स्वरूप की ही प्रतीति होती है । __ इसी को दृष्टान्त से पुष्ट करते हैं:अर्थस्येव तदुन्मुखतया ॥७॥ भाषार्थ-जिस तरह अर्य के अनुभव से पदार्थ का प्रतिभाप्त होता है, उसी तरह स्त्र के अनुभव से स्वव्यवसाय होता है । भावार्थ-इन सात सूत्रों में केवल इतनाही वर्णन हुअा है कि जो ज्ञान अपन और अन्य पदार्थों के स्वरूप का निश्चय करने वाला होता है, वही सच्चा ज्ञान अर्थात प्रमाण है, ऐसाही न्यायदीपिका में लिखा है कि-"सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम्" अर्थात् सच्चे ज्ञान

Loading...

Page Navigation
1 ... 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104