Book Title: Parikshamukh
Author(s): Ghanshyamdas Jain
Publisher: Ghanshyamdas Jain

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Page 11
________________ परीक्षामुख भावार्थ — वही ज्ञान सच्चा है, प्रमाण है, जो अपन आप को जानता है, और अन्य पदार्थों को जानता है; अर्थात् जो अपने स्वरूप का, तथा पर पदार्थों के स्वरूप का निर्णय करता है. वही सच्चा ज्ञान है । अब ज्ञान का प्रमाणपना सिद्ध करते हैं:-- हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थ हि प्रमाणं ततो ज्ञानमेव तत् ॥ २ ॥ भाषार्थ -- जब कि, जो सुखकी प्राप्ति तथा दुख के दूर करने में समर्थ होता है, उसीको प्रमाण कहते हैं; तब वह प्रमाण ज्ञानही होसकता है । अन्य सन्निकर्ष आदिक नहीं । भावार्थसन्निकर्ष इन्द्रिय और पदार्थों का सम्बन्ध श्रचेतन होता है. और जड़ ( अचेतन ) से सुख की प्राप्ति तथा दुःख का परिहार होता नहीं । इस कारण सन्निकर्ष प्रमाण नहीं हो सकता है, और ज्ञान से ये बातें होती हैं; इस लिए वह प्रमाण माना गया है। वह प्रमाण निश्चयात्मक ही होता है:तन्निश्चयात्मकं समारोपविरुद्धत्वादनुमानवत् ॥३॥ भाषार्थ - - वह प्रमाण निश्चयात्मक, अर्थात् स्व और पर का निश्चय करनेवाला होता है; क्योंकि वह समारोप ( संशय, विपर्यय तथा अनध्यवसाय ) से रहित होता है, जैसे अनु मान प्रमाण ।

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