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प्रथम संस्करण में लेखक का निवेदन
कोई भी भाषा के ज्ञान के लिए उस भाषा का व्याकरण और कोष प्रवान साधन है । प्राकृत भाषा के प्राचीन व्याकरण अनेक हैं, जिनमें चंड का प्राकृतलक्षण, वररुचि का प्राकृतप्रकाश, हेमाचार्य का सिद्धहम (प्रथम अध्याय), मार्कण्डेय का प्राकृतसर्वस्व प्रौर लक्ष्मीधर की पड्भाषाचन्द्रिका मुख्य हैं। और अर्वाचीन प्राकृत व्याकरणों की संख्या अल होने पर भी उनमें जर्मनी के सुप्रसिद्ध प्राकृतविद्वान् डॉ. पिशल का प्राकृतव्याकरण सर्वश्रेष्ठ है जो प्रतिविस्तृत और तुलनात्मक है। परन्तु प्राकृत-कोष के विषय में यह बात नहीं है। प्राकृत के प्राचीन कोषों में अद्यापि पर्यन्त केवल दो ही कोष अलब्ध हुए हैं—पण्डित धनपाल-कृत पाइअलच्छीनाममाला और हेमाचार प्रणीत देशीनाममाला । इनमें पहला अतिसंक्षिप्त -दो सौ से भी कम पद्यों में ही समाप्त और दूसरा केवल देश्य शब्दों का कोष है। इनके सिवा अन्य कोई भी प्राकृत का कोष न होनेसे प्राकृत के हरएक अभ्यासी को अपने अभ्यास में बहुत असुविधा होती थी, खुद मुझे भी अपने प्राकृत-ग्रन्थों के अनुशीलन-काल में इस प्रभाव का कटु अनुभव हुआ करता था। इससे पाज से करीब पनरह साल पहले पूज्यपाद, प्रातःस्मरणीय, गुरुवयं शास्त्र-विशारद जैनाचार्य श्री १०८ श्री विजयधर्मसूरीश्वरजी महाराज को प्रेरणा से प्राकृत का एक उपयुक्त कोष बनाने का मैंने विचार किया था।
इसी अरसे में श्री राजेन्द्र सरिजी का अभिधानराजेन्द्र नामक कोष का प्रथम भाग प्रकाशित हुआ और अभी दो वर्ष हुए इसका अन्तिम भाग भी बाहर हो गया है । बड़ी बड़ो सात जिल्दों में यह कोष समाप्त हुआ है। इस संपूर्ण कोष का मूल्य २६०) रुपये हैं जो परिश्रम और ग्रन्थ-परिमाण में अधिक नहीं कहे जा सकते। यद्यपि इस कोष की विस्तृत प्रालोचना करने की न तो यहाँ जगह है, न आवश्यकता ही; तथापि यह कहे बिना नहीं रहा जा सकता कि इसकी तय्यारी में इसके कर्ता और उसके सहकारियों को सचमुच घोर परिश्रम करना पड़ा है और प्रकाशन में जैन श्वेताम्बर संघ को भारी धन-व्यय । परन्तु खेद के साथ कहना पड़ता है कि इसमें कर्ता को सफलता की अपेक्षा निष्फलता ही अधिक मिली है और प्रकाशक के धनका अपव्यय ही विशेष हुआ है। सफलता न मिलने का कारण भी स्पष्ट है। इस ग्रन्थ को थोड़े गौर से देखने पर यह सहज ही मालूम होता है कि इसके कर्ता को न तो प्राकृत भाषामों का पर्याप्त ज्ञान था और न प्राकृत शब्द-कोष के निर्माण की उतनी प्रबल इच्छा, जितनो जैन-दर्शन-शास्त्र और तक-शास्त्र के विषय में अपने पाण्डित्यप्रख्यापन की घून । इसी धुन ने अपने परिश्रम को योग्य दिशा में ले जानेवालो विवेक-बुद्धि का भी हास कर दिया है। यही कारण है कि इस कोष का निर्माण, केवल पचहत्तर से भी कम प्राकृत जैन पुस्तकों के हो, जिनमें अर्धमागधी के दर्शनविषयक ग्रंथों की बहुलता है, आधार पर किया गया है और प्राकृत को ही इवर मुख्य शाखाओं के तथा विभिन्न विषयों के अनेक जैन तथा जैनेतर ग्रन्थों में एक का भी अयोग नहीं किया गया है । इससे यह कोष व्यापक न होकर प्राकृत भाषा का एकदेशीय कोष हुमा है। इसके सिवा प्राकृत तथा संस्कृत ग्रन्थों के विस्तृत अंशों को और कहीं-कहीं तो छोटे-बड़े संपूर्ण ग्रन्थ को ही अवतरण के रूप में उद्धृत करने के कारण पृष्ठ-संख्या में बहुत बड़ा होने पर भी शब्द-संख्या में ऊन ही नहीं, बल्कि आधार-भूत ग्रंथों में पाए हुए कई उपयुक्त शब्दों को छोड़ देने से और विशेषार्थ-हीन पतिदीर्घ सामासिक शब्दों की भरती से वास्तविक शब्द-संख्या में यह कोष अतिन्यून भी है। इतना ही नहीं, इस कोष में मादशं पुस्तकों की, प्रसावधानी की
और प्रेस की तो असंख्य अशुद्धियाँ हैं ही, प्राकृत भाषा के अज्ञान से संबन्ध रखनेवाली भूलों की भी कमी नहीं है। और सबसे बदकर दोष इस कोष में यह है कि वाचस्पत्य, अनेकान्नजयपताका, अष्टक, रत्नाकरावतारिका आदि केवल संस्कृत के और जैन इतिहास जैसे
१. जैसे 'चेइय' शब्द की व्याख्या में प्रतिमाशतक नामक सटीक संस्कृत ग्रन्थ को प्रादि से लेकर अन्त तक उद्धृत किया गया है।
इस ग्रंथ की श्लोक-संख्या करीब पाँच हजार है। २. अक = अकं आदि। ३. जैसे अइ-तिक्ख-रोस, अइ-दुक्ख-धम्म, अइ-तिब्ब-कम्म-विगम, अकुसल-जोग-रिणरोह, चियंते(?)उर-पर-घर-प्पवेस, अजिम्म(?)
कंत-गयरणा, अजस-सय-विसप्पमारण-हियय, अजहएणको(?)स-पएसिय प्रादि। इन शब्दों का इनके अवयवों को अपेक्षा कुछ भी विशेष अर्थ नहीं है।
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