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पानन्दि-पधार्षिशविर उद्धृत किया है। इसी प्रकार अनगारधर्मामृतके ही आठवें अध्यायके २१वें श्लोककी टीका सदोषचन्द्रोदयके प्रथम श्लोकको, २३वें श्लोककी टीकामें इसी प्रकरणके १८.१६ और ४४ इन तीन श्लोकोंको, तथा ६४ श्लोककी टीकामें उपासकसंस्कारके ६१वें श्लोकको उक्त किया है। इस टीकाको पं. आशाधरजीने वि. सं. १३०० में समाप्त किया है । अत एव मुनि पद्मनन्दीका इसके पूर्वमें रहना निश्चित है। पचनन्दी और मानत-आचार्य मानतुजविरचित मक्तामर स्तोत्रमें एक श्लोक इस प्रकार है
को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणैरशेषैस्त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश ।
दोषैरुपातविबुधाश्रयजातगर्वैः स्वमान्तेरऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि ॥ २७ ॥ इसकी तुलना पद्मनन्दीके निम श्लोकसे कीजिये
सम्यग्दर्शनबोधवृत्तसमलाशीलक्षमाद्यैर्षनैः ___ संकेताश्रयवजिनेश्वर भवान् सर्वेर्गुणैराश्रितः । मन्ये त्वय्यवकाशलब्धिरहितैः सर्वत्र लोके वयं
संपाचा इति गर्वितैः परिहतो दोपैरशेषैरपि ॥ २१-१ ॥ इन दोनों लोकोंका एक ही अभिप्राय है।
इसके अतिरिक्त जिस प्रकार भक्तामर स्तोत्र ( २८-३५ ) में आठ प्रातिझायोंके आश्यसे भगवान् आदिनाथकी स्तुति की गई है उसी प्रकार प्रस्तुत प्रन्पके अन्तर्गत ऋषभस्तोत्र ( २३-३४) में भगवान् आदिनाथकी तथा शान्तिनाथस्तोन (१-८) में शान्तिनाथ तीर्थकरकी भी स्तुति की गई है।
पग्रनन्दी और कुमुदचन्द्र-भक्तामरके समान कल्याणमन्दिर स्तोत्र (१९-२६) में आचार्य कुमुदचन्द्रके द्वारा भी आठ प्रतिहार्योंके आश्रयसे भगवान् पार्श्वजिनेन्द्रकी स्तुतिकी गई है। वे वहां अशोकवृक्षका उल्लेख करते हुए कहते हैं
धमोपदेशसमये सविधानुभावादास्तां जनो भवति ते तहरप्यशोकः ।
अभ्युद्गते दिनपतौ समहील्होऽपि किं वा वियोधमुपयाति न जीवलोकः ।। १९ । इसकी तुलना ऋषभस्तोत्रकी निम्न गाथासे कीजिये
अच्छंतु ताव इयरा फुरियविवेया णमंतसिरसिहरा ।
होइ असोओ रुवखो वि शाह तुह संणिहाणत्थो ।। २४ ॥ ५. यद्यपि मानतज्ञाचार्यका काम निश्चित नहीं है, फिर भी दोनों लोकोंके भावको देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि मुनि पनीने भकामरके उक ऋोकका अपने कमें विशीकरण किया है। वैसे-मजामरस्तोत्रमे 'गुणैः' इस सामान्य पदका प्रयोग कर किसी विशेष गुणका उल्लेख नहीं किया । उसे मुनि पद्यनन्दीने 'सम्यग्दर्शन' "मैः' इस पदके द्वारा स्पष्ट कर दिया है । भकामरमें जिस 'अशेष शम्दका प्रयोग गुणके साथ [ गुणरशेषः ] किया गया है उस 'मशेष' शब्दका प्रयोग यहां दोषके साय [ दोषैरशेषैः ] किया गया है, और गुणोंकी अशेषता दिखलाने के लिये 'सर्वेः' पदको अधिक ग्रहण किया गया है।
२. शांतिनामस्तोत्रके प्रथम और द्वितीय श्लोकोंकी भक्तामरके ३१ और ३२वें श्लोकोंके साथ भावकी मी बहुत कुछ समानता है। भक्तामरके २२ और ३२ वें श्लोकसे ऋषभस्तोत्रकी गाया ८ और २८ भी कुछ समानता रखती है। इसके अतिरिक्त भक्तामरखोत्र (२४-२५) में ब्रह्मा, ईश्वर, अनाकेतबड, शंकर और पुरुषोत्तम आदि नामोंके द्वारा जिनेन्द्रकी सुति की गई है। तदनुसार ऋषभरतोस(५५) में भी ये सब नाम जिनेन्द्रकेही निर्दिष्ट किये गये हैं।