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पभनन्दि पञ्चर्षिशतिः तुलनात्मक दृष्टिसे विचार करनेपर उसका प्रभाव एपनन्दीकी इन कृतियोंमें कुछके ऊपर दिखता है। उदाहरणके रूपमें यहाँ ( ६. २९-३०) विनयकी आवश्यकताको बतलाते हुए उसके स्वरूप और फलका निर्देश इस प्रकार किया है
विनय यथायोम्यं कर्तव्यः परमेष्टिषु । दृष्टि-बोध-चरित्रेषु तद्वत्सु समयाश्रितैः ।।
दर्शन-शान-चरित्र-सपःप्रभृति सिद्धयति । विनयेनेति तं तेन मोक्षद्वारं प्रचक्षते ॥ यह भाव अमितगति-श्रादकार (१३ ) में इस प्रकारसे व्यक्त किया गया है
संघे चतुर्विधे भक्त्या रसत्रयराजिते । विधातव्यो यथायोम्यं विनयो नयकोविदः ॥ १४ ॥ सम्यग्दर्शन-चारित्र-तपोज्ञानानि देहिना । अवाप्यन्ते विनीतेन यशांसीव विपश्चिता ॥ १८ ॥
अमितगति-श्रावकाचारके इन लोकोंका उपर्युक्त दोनों लोकोंमें न केवल भाव ही लिया गया है, बल्कि कुछ शब्द भी ले लिये गये है।
___ अमितगति-श्रावकाचारके चतुर्थ परिच्छेदमें कुछ योडे-से विस्तारके साथ चार्वाक, विज्ञानाद्वैतवादी, प्रमाद्वैतवादी, सांख्य, नैयायिक, असर्वज्ञतावादी मीमांसक एवं बौद्ध आदिके अभिप्रशयको दिखलाफर उसका निराकरण किया गया है । इसका विचार अति संक्षेपमें मुनि पानन्दीने मी प्रस्तुत ग्रन्थ (१,१३४-३९) में किया है। यद्यपि इन मत-मतान्तरोका विचार अष्टसहली, लोकवार्तिक, प्रमेयकमलमार्तण्ड एवं न्यायकुमुदचन्द्र आदि तर्कप्रधान अन्यों में बहुत विस्तारके साथ किया गया है, फिर भी मुनि पानन्दीने उक्त विषयपर अमितगतिकृत श्रावकाचारका ही विशेषरूपसे अनुसरण किया है। यथा
आत्मा कायमितश्चिदेकनिलयः कर्ता च भोक्ता स्वयं
संयुक्तः स्थिरता-विनाश-जननैः प्रत्येकमेकक्षणे ॥ प. १-१३४ ॥ कुर्यात् कर्म शुभाशुभ स्वयमसौ मुझे स्वयं तत्फलं सातासातगतानुभूतिकलनादात्मा न चान्यादृशः । चिपः स्थिति-जन्म-भङ्गकलितः कर्मावृतः संहती मुक्ती ज्ञान-हगेकमूर्तिरमलबैलोक्यचूडामणिः ॥ प. १-१३८॥ इसकी तुलना अ. श्रा. के निम्न श्लोकसे कीजिये--
निर्बाधोऽस्ति ततो जीवः खित्युत्पत्ति-व्ययात्मकः ।
कर्ता मोक्ता गुणी सूक्ष्मो ज्ञाता दृष्टा तनुप्रमा ॥ ४-५६ ॥ इसके अन्तर्गत प्रायः सभी विशेषण उपर्युक्त प. पं. वि. के श्लोकोंमें उपस्थित है।
भाचार्य अमितगतिने इस श्रावकाचारकी प्रशस्तिमें अपनी गुरुपरम्पराका तो उल्लेख किया है, पर मन्थरचनाकालका निर्देश नहीं किया । फिर भी उन्होंने सुभाषितरमसंदोह, धर्मपरीक्षा और पञ्चासंग्रहकी समातिका काल क्रमसे वि. सं. १०५०, १०७० और १०७३ निर्दिष्ट किया है। इससे उनका समय निश्चित है। अत एव उनके श्रावकाचारका उपयोग करनेवाले मुनि एमनन्दी वि. सं. की ११ वीं सदीके उत्तरार्धमें या उनके पश्चात् ही होना चाहिये, इसके पूर्व होनेकी सम्भावना नहीं है ।
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जैसे-'विनयक्ष यथायोग्यं कर्तव्यः' और 'विधासब्यो यथायोग्य मादि।