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प्रस्तावना
सोमदेव सूरिने देशयतियों ( श्रावकों ) के प्रतको मूलगुण ( यश. उ. पृ. ३२७) और उत्तरगुण (यश. उ. पृ. ३३३) के मेदसे दो प्रकारका बतलाकर उनमें मूलगुण और उत्तरगुणोंका निर्देश इस प्रफारसे किया है
मथ-मांस-मधुत्यागाः सहोदुम्बरपञ्चकाः[ कैः ] । अष्टावेते गृहस्थानामुक्ता मुलगुणाः श्रुतेः ।।
अणुप्रतानि पश्चैव त्रिप्रकार गुणवतम् । शिक्षाबतानि चत्वारि गुणाः स्यु‘दशोसरे ॥
उनका अनुसरण करते हुए यहां मुनि पमनन्दीने भी इन मूलगुणों और उत्तरगुणोंका इसी प्रकारसे पृथक् पृथक् निर्देश अपने उपासकसंस्कार (६, २३-२४) में किया है। इतना ही नहीं, मगिक कागुनो. नटरमा डा लोको नो प्रायः ( चतुर्थ चरणको छोषफर) उन्होंने जैसाका तैसा यहाँ ले लिया है।
इस प्रकारसे यह निश्चित है कि मुनि एप्रनन्दीने अपनी इन कृतियोंमें यशस्तिलकके उपासकाध्ययनका पर्याप्त उपयोग किया है। यशस्तिलककी प्रशस्तिके अनुसार उसकी समाप्तिका काल श. सं. ८८१ (+१३५-१०१६ वि. सं.) है। अत एव मुनि पद्मनन्दीका रचनाकाल इसके पश्चात् हो समझना चाहिये, इसके पूर्वमें यह सम्भव नहीं है।
पानन्दी और अमृतचन्द्रसरि- पनन्दीने प्रस्तुत अन्धके अन्तर्गत निश्चयपञ्चाशतप्रकरणमें व्यवहार और शुद्ध नयोंकी उपयोगिताको दिखलाते हुए शुद्ध नयके आश्रयसे आत्मतत्वके विषयमें कुछ कहनेकी इच्छा इस प्रकार प्रकट की हैव्यवहतिरबोधजनबोधनाय कर्मक्षयाय शुद्धनयः । स्वार्थ मुमुक्षुरहामिति वक्ष्ये तदाश्रितं किंचित् ।। ८॥
यहां पद्मनन्दीने व्यवहारनयको अबोध ( अज्ञानी) जनोंको प्रतिबोधित करनेका साधन मात्र बतलाया है। इसका आधार अमृतचन्द्र रिविरचित पुरुषार्थसिक्युपायका निम्न श्लोक रहा हैअक्षुधस्य बोपनार्थ मुनीश्वरा देशयन्त्यभूतार्थम् । व्यवहारमेव केवलमवैति यस्तस्य देशना नास्ति ॥ ६ ॥
इस श्लोकके पूर्वार्धमें प्रयुक्त शब्द और अर्थ दोनोंको ही उपर्युक्त लोकमें ग्रहण किया गया है। छन्द (आर्या) भी उक्त दोनों लोकोंका एक ही है । इससे आगेके ९-११ लोकोंपर भी पुरुषार्थसिद्धधुपायके. लोक और ५ का प्रभाव स्पष्ट दिखता है।
उक्त अमृतचन्द्रसूरिका समय प्रायः वि. सं. की ११वीं सदीका पूर्वार्ध है । अत एव मुनि पप्रनन्दी इनके पश्चात् ही होना चाहिये ।
पयनन्दी और अमितगति- आचार्य अमितगतिका श्रावकाचार प्रसिद्ध व विस्तृत है। उन्होंने अपने सुभाषितरत्नसदोहके अन्तिम (३१) प्रकरणमें भी संक्षेपसे उस श्रावकाचारका निरूपण किया है ।
१ निवषपञ्चाशत्के ९३ श्लोकका पूर्वार्ध भाग समयप्राभूतकी निन्न गायाका प्रायः छायानुवाद है-वहारोऽभूत्यो भूवत्थो देसिदो हु मदणी । भूवत्वमस्सिवो खल्तु सम्मादिली हयात जीवो ॥ ११ ॥
२ श्री. पं, कैलाशचत्रजी शास्त्रीने जैनसन्देशके शोशाक ५ (पृ. १७४-4.) में अमृतमन्द्र झिका यही समय निर्दिा किया है।