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प्रस्तावना
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पद्मनन्दी, जयसेन और पद्मप्रभ मलधारी देव — अब हम यह देखनेका प्रयत्न करेंगे कि वे ११ वीं सदी के कितने पश्चात् हो सकते हैं। इसके लिये यह देखना होगा कि उनकी इन कृतियोंका उपयोग किसने और कहां पर किया है । प्रस्तुत पञ्चविंशतिके अन्तर्गत एकत्वसप्ततिके 'दर्शनं निश्वयः पुंसि' आदि लोक (१४) को पञ्चास्तिकायकी १६२वीं गाथाकी टीकामें जयसेनाचार्यने 'तथा चोक्तमात्माश्रितनिश्चयरलत्रयलक्षणम्' लिखकर उद्धृत किया है। इसी लोकको पद्मप्रभ मलधारी देवने भी नियमसार (गा. ५१-५५) की टीका में 'तथा चोक्तमेकत्वसप्ततौ' लिखकर उसके नामोल्लेखके साथ ही उद्धृत किया है। इसके अतिरिक्त पद्मप्रभ मलधारी देवने उक्त नामोल्लेखके साथ इसी नियमसारकी ४५-४६ गाथाओंकी टीकामें उस एकत्वसप्ततिके ७९ वें श्लोकको, तथा १००वीं गाथाकी टीकामें ३९-४१ लोकोंको भी उद्धृत किया है। पद्मप्रभक स्वर्गवास वि.सं. १२४२ में हुआ था तथा जयसेनका उससे पूर्व किन्तु आचारसारके कर्ता वीरनन्दी (वि. सं. १२९० ) से पश्चात् सिद्ध होता है । अत एव पद्मनन्दीका समय इसके आगे नहीं जा सकता है। निष्कर्ष यह निकलता है कि वे वि. सं. १०७५ के पश्चात् और १२४० के पूर्व किसी समय में हुए हैं ।
पद्मनन्दी और सुनन्दी - मुनि पद्मनन्दीने देशत्रतोयोतन प्रकरण ( ७ - २२ ) मैं कुंदुरुके पत्रके बराबर और जौके बराबर जिनगृह और जिनप्रतिमा के निर्माणका फल अनिर्वचनीय बतलाया है। यह वर्णन वसुनन्दि-श्रावकाचारकी निम्न गाथाओंसे प्रभावित दिखता है-
कुत्युंभरिदलमेचे जिणभवणे जो ठबेह जिणपडिमं ।
सरिसवमेत्तं पि हे सो णसे तित्थयरपुष्णं ॥ ४८१ ॥ जो पुण जिद्भिवणं समुष्णयं परिहि-तोरणसमगं । निम्मावर तस्स फलं को सब वणिजं सयलं ॥ ४८२ ॥
इसी प्रकार उन्होंने 'दानोपदेशन' प्रकरण (४८-४९) में जो पात्रके भेद और उनके लिये दिये जानेवाले दानके फलका विवेचन किया है उसका आधार उक्त मापकाचारकी २२१-२३ व २४५-४८ गाथायें, तथा धर्मोपदेशामृतके ३१ वें लोकमें एक एक व्यसनका सेवन करनेवाले युधिष्ठिर आदिके जो उदाहरण दिये गये हैं उनका आधार १२५-३२ गाथायें रहीं प्रतीत होती हैं। आचार्य वसुनन्दी अमितगतिके उत्तरवर्ती और पं. आशाधरके पूर्ववर्ती प्रायः वि. सं. की १२वीं सदीके ग्रन्थकार हैं ।
पद्मनन्दी और प्रभाचन्द्र आचार्य प्रभाचन्द्रने रत्नकरण्ड श्रावकाचारके 'धर्मामृतं सतृष्णः' आदि श्लोक ( ४-१८ ) की टीका में प्रस्तुत ग्रन्थके अन्तर्गत उपासक संस्कार प्रकरणके 'अधुवाशरणे चैव' आदि दो लोकों ( ४३-४४ ) को उद्धृत किया है। आचार्य प्रभाचन्द्र विक्रमकी १३वीं सदीमें पं. आशाधरजीके पूर्व में हुए हैं।
पद्मनन्दी और पं. आशाघर - श्री पण्डितप्रवर आशाधरजीने अपने अनगारधर्मामृतकी सोपज्ञ टीका में मुनि पद्मनन्दीके कितने ही लोकोंको उद्धृत किया है। उदाहरणार्थ उन्होंने ९ वें अध्यायके ८० और ८१ लोकोंकी टीका 'अत एव श्रीपद्मनन्दिपादैरपि सम्वेतादूषणं दिमात्रमिदमधिजगे' इस आदरसूचक वाक्यके साथ धर्मोपदेशामृत के ' म्लाने क्षालनतः' आदि लोक ( ४१ ) को उद्धृत किया है। इसके अतिरिक्त इसी अध्याय ९३वें लोककी टीकामें उक्त प्रकरणके ४३वें, तथा ९७ वें लोककी टीकामें ४२वें श्लोकको भी
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