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मह गापा प्रत्यधिक प्रिय रही है । मोर इस कथन से यह भी सिद्ध हो जाता है कि प्रन्थकार अपनी प्रिय पाथा, श्लोक भादि को अपने अन्य प्रायों में लेते रहे हैं । यहां नियमसार में प्रत्यास्थान परमसमाधि, और प्रावश्यक प्राधिकार में भी गई गाथायें मूलाचार ग्रन्म में भी ली गई हैं । अध्यात्म से संयम रत्न मिलता है :
टीकाकार ने अपने १४७ वे कलश में कहा है---
"मध्यात्मशास्त्ररूपी ममृतसमुद्र से मैंने संयमरलमाला निकालो है।" इससे यह सिद्ध होता है कि प्रध्यात्म अन्धों को पढ़ने से सयम ग्रहण करना अवश्य होता है न कि संयम से रुचि । प्राबकल वो मध्यात्म प्रस्य । कार संयम
आध्यात्म के रहस्य को न समझकर शास्त्र को शस्त्र बना लेते हैं मोर। संयम तया संयमी की निंदा करके दर्शन मोहनीय हो बंध लेते हैं । वास्तव में प्रध्याता ग्रन्य से भास्मा में अनंत गक्ति है।" ऐसा ज्ञान मोर भवान हो जाने से उसके फलरूप मोक्ष को प्राप्त करने के लिये चारित्र ग्रहण रूप पुरुषार्थ करना ही चाहिये।
मैंने स्वयं यह अनुभव किया है । बाल्यकाल में पद्मनंदिपंचविशतिका के स्वाध्याय से "मात्मा में ममत शक्ति है।" ऐसा निश्चय ही जाने से मैंने शक्ति के अनुसार चारित्र ग्रहण कर उस अनंतशक्ति को प्रगट करने के पुरुषार्थ में अपना कदम उठाया। पद्मप्रभमलधारिदेव का भक्तिराग :
टीकाकार ने इस अध्यात्मग्रन्थ में नौकरी की भक्ति, सामान्य में जिनमक्ति, गुरुभक्ति और अपने स्वयं के इष्ट पाचार्यों की भक्ति करते हुए प्रनेक कलशकाय लिखे हैं। उनमें से श्री पदमप्रभु की भक्ति के तीन फाव्य है. नेमिनाथ को भक्ति के तीन काव्य है. और वीरप्रभु को भनि के दो काव्य है। जिन देव की भक्ति के तो अनेक काथ्य हैं।
इन पमप्रभमसवारीदेव ने प्रारम में प्राचायों में श्री सिद्धसम, श्री प्रकलय दव, श्री पूज्यपाद पोर श्री वोरनंदि को नमस्कार किया है। प्रव्य के कलश कारों में प्रोकोनि मुनि श्री माधवसेन प्राचार्य, श्री वीरन प्राचार्य को भी बड़े प्राय: it. । इन तीनो में में कौन इसके दोक्षागा ये भोर कौन शिक्षा गुर: यह स्पष्ट नहीं हो पाया है। ग्राज भो सच्चे मुनि हैं :
माना जानने वाले दोकानकायों में रही है। उसका पदाहरण
टम कलिकाल में भी देखिये -