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ध्यानरूप चारित्र माज के मुनि को है या नहीं :
अदि सबकदि काई जे, पहिरुमणादि करेज सापमयं ।
सत्तिविहीणो जा जर सादहणं घेच काय ॥१४॥ ' हे भुने ! यदि तुम्हें शक्ति है तो ध्यानमय प्रतिक्रमण मादि करो। और यदि पाक्ति नहीं है तो अडान करना चाहिये । इसमें टोकाकार ने कहा है कि "यदि इस पंचमकाल में तुम्हें उत्तम संहनन नहीं है तो केवल निजपरमात्मतत्व का प्रधान ही करना चाहिये । पुन: कलशकाव्य में कहा है-"पापबहुल इस कलिकाल में मुक्ति नहीं है प्रतः मध्यात्मध्यान से हो सकता है। इस कारण तुम्हें निज मात्मा का श्रद्धान ही करना चाहिये।"
करणानुयोग पढ़ने की प्रेरणा :
गाथा १७ में प्राचार्यदेव ने नर नारक मादि के संक्षिप्त भेद बताकर यह कह दिया कि
"एदेसि वित्यारं लोय विभागेसु गादच्वं । इनका विस्तार लोकविभाग से जान लेना चाहिये। इस कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि मेसीलो करायोगायोकीन हैं।
योगक्ति या परमसमाधिरूपध्यान :
गाया १४० में कहा है कि वृषभ से लेकर सभी तीर्थकों ने योगति-निर्विकल्प ध्यान करके ही निर्वाणा मुख प्राप्त किया है अतः तुम लोग भी योगक्ति करो। यहां परमसमाधिरूप ध्यान विवक्षित है।
माथा १५८ में कहा है कि "सभी प्राचीन पृष, प्रावश्यक क्रियानों को करके प्रप्रमत्त मादि गुणस्थानी को प्राप्त कर फेवली भगवान् हये हैं । इस कथन से मावश्यक त्रियानों का महन्द प्रगट हो रहा है।
महत्वपूर्ण या प्रिय गाथा :
इस अन्य में एक गाथा है जिसे प्राचार्यदेव ने अपना पंथों में लो है, वह यह है--
अरसमरूयमगंध अन्वत वेदणागुणमसदं । जाण अलिगमाहणं जीवपगिद्दिव संठाणं ।।
हे शि ! ग य को रसरहित, पहित, गंधरहित, व्य करहित, शब्द रहित, अनुमान के द्वारा ग्रहण न करने योग्य, गरदान भी भय का न नहा जा सके ऐसा निदिष्ट मंम्यान पोर चेतनागुण सहित नमझो।
यह माननाराबागापाई। व-मारतीमधराम Eबी नियमसार पंस्ति गाय में १२वी है और जापाभूत में : वीं है। इससे मासूम परता है ग्रन्थकार श्रीकृ'दक देव का