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जो मुनीश्वर त्रिगुप्ति गुप्त परमार से सहित, प्रति पपूर्व मात्मा को ष्याते हैं। जिस हेतु से वे प्रतिक्रमणमय परमसंयमी हैं इसी हेतु से ये निश्चय प्रतिक्रमण स्वरूप हैं । गाया ९१ की टीका में भी परम तपोधन पुनि के ही निश्चय प्रतिक्रमण कहा है-
"यः परमपुरुषार्थपरायणः शुद्धरत्नत्रयात्मक आत्मानं भावयति स एव परमतपोधन एव निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूप इत्युक्तः "
जो परम पुरुषार्थ में लगे हुये मुनि शुद्धरन्नत्रयस्वरूप श्रात्मा को भावना करते हैं, वे ही परमतपोधन निश्चयप्रतिक्रमण स्वरूप हैं।
गाथा ८२ को टोका में परम संयमी को ही मुमुक्षु कहा है
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"जोवकर्म युगलयोर्भेदाभ्यासे सति तस्मिन्नेव च ये मुमुक्षवः सर्वदा संस्थितास्ते ह्यतएव मध्यस्था: सेन कारणेन तेषां परमसंयमिनां वास्तवं चारित्रं भवति ।"
जीव कर्म के भेदाभ्यास में जो "मुमुक्षु" हमेशा स्थित है इस हेतु से वे मध्यस्थ हैं. उन परमसंयमी मुनियो के हो वास्तविक चारित्र होता है।
इस तरह वीतरागमुति के सातवें, माटवं गुणस्थान से लेकर बारहवें गुग्गस्थान तक जो ध्यानावस्था होती है उसी का नाम निर्विकल्प ध्यान मुद्धात्मतत्व ध्शन और निश्चपनारित्र है । इन उद्धृत प्रकरणों से क्रम विदित हो जाता है । व्यवहारचारित्र के दाद निश्वयचारित्र का क्रम होने से इन दोनों में कारण कार्यभाव और साधनसाध्य भाव प्रच्छी तरह सिद्ध हो रहा है ।
भक्ति में श्रावक भी अधिकारी हैं :
| इस ग्रन्थ में परमभक्ति नाम के दसवें अधिकार में प्राचार्यदेव ने भक्ति करने के लिये "सागो" "समरा" शब्द में दोनों की हो लिया है। गया
सम्मणाचरणे, जो मति कुण सावगी समणो । तस दुणिदिती, होबिसि जिलेहि पण्ण ॥ १३४ ॥
जो श्रावती र अपमा सम्यग्दर्शन, ज्ञान को चारित्र में भक्ति करता है उसके निति भ ना है। 1
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