Book Title: Niyamsar
Author(s): Kundkundacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 9
________________ १४ से यह समझा जाता है कि व्यवहारनप मिथ्या नहीं है अन्यथा केवली भगवान के मान में सब कुछ झमक रहा है यह कहना ही मिथ्या हो जायेगा । प्रतः नय वस्तु के एक अन्न को ग्रहण करता है वह अपने विषय को कहने में: समीचीन ही है। निश्चयचारित्र मुनि को हो होता है : इस ग्रन्थ में पारित्र के प्रकरण में हर एक जगह मुनि के लिये ही वीतराग या निश्चयचारित्र का प्रतिपादन है । उसके सूचक मुनि या मुनि के पात्रक संयत श्रमण प्रादि शब्द २२ गापाओं में प्राय हुये है उन । गापात्रों को परिशिष्ट में दिया गया है । जिनमें से कुछ उदाहरण देखिये ___ गाथा ६८ में जो साषु अगुप्तिभाव को छोड़कर त्रिगुप्ति से गुप्त होते हैं वे ही प्रतिक्रमण कहलाते हैं। क्योंकि वे प्रतिक्रमणरूप हो चुके हैं | गाथा १०७ मे जो कम नो कर्म रहित, विभावगुणपर्यायों से भिन्न पात्मा का ध्यान करते हैं उन प्रमण के पालोमना होती है। गाथा १४४ में जो संयत शुभ भाव में प्राचरण करते हैं । अन्धवश हैं इसलिये उनको कियायें पावश्यक लक्षण नहीं है। पुन : १५१ में कहा है-धो धर्म शुश्त ध्यान से | परिणत है वे अंतगरमा हैं । पान से होन घमण बहिरात्मा है । तात्पर्य यही निकलता है कि चौथे प्रषिकार के व्यवहारचारित्र के बाद जो निश्नयप्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, मालोचना, प्रायश्चित्त, समाधि, भक्ति पार । प्रावश्यक नाम से निग्यचय चारित्र के प्रकाश मान शिकार हैं उनमें मान को एकापता, मात्मा के स्वरूप में तन्मयता, शुद्धोपयोग परिणति या मिविकल्प समाधि हो विक्षित है वही वीतराग बारित है। टीकाकार ने स्थल स्थल पर इस विषय को स्पष्ट किया हुअा है। जिन कनामा काव्यों में भक्ति प्रधान है। पौर जो फलश काथ्य निश्चयचारित्र का कथन करते हैं तथा मोर भी जो कुछ विशेष है ऐसे चौबीस कसम काय परिशिष्ट में दे दिये हैं । कुछ उदाहरण देखिये- कलश काव्य ७३ में कहा है-शुद्धनिश्चयनय में मोक्ष पोर । ससार में कुछ अंतर नहीं है । गुद्धता के रमिक तपादिचार के समय ऐगा ही कहते हैं।" उस १२४ में है-यह शुगल ध्यान रूपी दीपक जिन के. मनरूपी मकान में नन रहा है, वही योगी, उसके शुखात्मा स्वयं प्रत्यक्ष हो । जाता है। "यहां यह स्पष्ट है कि श्रेणी में हो मुनिकों को शुद्धात्म का प्रयक्ष अनुभव होता है ।" कला १७० में , रहा है-गरूपी अंधकार का नाम करने वाला महनते . जयशीन है, यह मुनियरों के मन में हो गोबर होता है, पा शुद्ध। विषय मात्र में न रये लोगों ) मयः ही दुलभ है, परमसुन का गमुद्र है । ऐसा यह शुजान निद्रा ।। मे रहित है। इसमें भी पाया है कि शुद्ध पात्मा ने विपणाव में वत्पर गृह नहीं मिल सकता । प्रागे. २४३ ।। 1 में हैं .-मुनिषधागे भो पुप : पोन विमु स्वचा मुनि शेकामुक मार पह जिनेन्द्र देव गे यिनित हो गूनयवरः, मुनि बार हमें गुगायावतीं हैं। इने ही कलम २५९ में कहा है कि "मोह के नष्ट ह जाने पर ये मुनि अंतस्तन्द को देश लेरो।" यह भी वारहये गुणस्थान में संभव है।। ' ' . . . .

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