________________
नियुक्तिपंचक
१. तद्द्रव्य शुद्धि २. आदेशद्रव्य शुद्धि ३. प्राधान्यद्रव्य शुद्धि । जो वस्तु किसी अन्य द्रव्य से असंयुक्त रहकर शुद्ध रहती है, वह तद्रव्य शुद्धि है, जैसे--- दूध, दही आदि, इनमें दूसरी वस्तुओं का मिश्रण विकृति पैदा कर देता है। आदेशद्रव्य शुद्धि के दो प्रकार हैं— अन्य आदेशशुद्धि और अनन्य आदेशशुद्धि । शुद्ध कपड़े वाले व्यक्ति की शुद्धि अन्य आदेशद्रव्य शुद्धि है क्योंकि इसमें अन्य द्रव्य के साथ शुद्धि जुड़ी हुई है । जिसमें अन्य द्रव्य की अपेक्षा न हो, वह अनन्य आदेशद्रव्य शुद्धि है, जैसे शुद्ध दांतों वाला व्यक्ति । अपने-अपने अभिप्राय के अनुसार जिसको जो अनुकूल लगे, वह प्राधान्यद्रव्य शुद्धि है । प्रायः शुक्ल वर्ण, मधुर रस, सुरभि गंध और मृदु स्पर्श उत्कृष्ट और कमनीय माने जाते । इसी प्रकार भावशुद्धि के भी तद्रव्य शुद्धि आदि तीन भेद हैं ।
कहा जा सकता है कि निक्षेप-पद्धति के प्रयोग से नियुक्ति की शैली एवं अर्थ कथन में एक नयी गरिमा प्रकट हो गयी है । आगमिक भाषा में इसे विभज्यवादी शैली कहा जा सकता है। निर्युक्तिपंचक का रचना - वैशिष्ट्य
1
किसी भी शास्त्र की विशेषता उसकी भाषा-शैली, विषय-वस्तु तथा मौलिकता के आधार पर निर्धारित की जाती है। आगमों की मूल भाषा अर्धमागधी है पर नियुक्ति - साहित्य पर अर्धमागधी और महाराष्ट्री दोनों का प्रभाव परिलक्षित होता है । निर्युक्ति की भाषा प्रायः सरल और सरस है पर कहींकहीं अत्यन्त संक्षिप्त शैली में होने के कारण इसकी भाषा जटिल हो गयी है । दार्शनिक विषयों के विवेचन में भी इसकी भाषा लाक्षणिक एवं गूढ बन गयी है अतः व्याख्या - साहित्य के बिना नियुक्तियों को समझना अत्यंत कठिन है। परवर्ती व्याख्याकारों ने मूल आगम के साथ नियुक्ति - गाथाओं की भी विस्तृत व्याख्या की है। प्राकृत भाषा में निबद्ध होने पर भी नियुक्तियों में संस्कृत से प्रभावित प्रयोग भी मिलते हैं— ददति गुरुराह अत एव ( दशनि ९७ / १ )
प्रसंगवश शब्दों के एकार्थक लिखना नियुक्तिकार का भाषागत वैशिष्ट्य है । अनेक महत्त्वपूर्ण एवं नए एकार्थकों का प्रयोग नियुक्ति - साहित्य में हुआ है, जो सामान्य कोश - साहित्य में नहीं मिलते। निर्युक्तिकार ने सूत्रगत अध्ययन के नाम पर भी एकार्थक लिखे हैं, जो अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं । द्रुमपुष्पिका के तेरह एकार्थक हैं ( दशनि ३४ ) । टीकाकार ने इनको एकार्थक माना है पर चूर्णिकार ने इनको अर्थाधिकार माना है क्योंकि इनमें मुनि की माधुकरी वृत्ति को विभिन्न दृष्टांतों से समझाया गया है। निर्युक्तिगत एकार्थकों का संकलन परिशिष्ट सं. ३ में कर दिया गया है ।
|
विभिन्न भाषी शिष्यों को ध्यान में रखते हुए तथा शिष्यों की शब्द-संपदा बढ़ाने के लिए निर्युक्तिकार ने अनेक देशी शब्दों का प्रयोग किया । नियुक्तिपंचकगत देशी शब्दों का सार्थ संकलन हमने परिशिष्ट सं. ४ में कर दिया है ।
६६
|
सूक्तियों के प्रयोग से भाषा में सरसता और प्रभावकता उत्पन्न हो जाती है। नियुक्तिकार ने प्रसंगवश अनेक मार्मिक सूक्तियों का प्रयोग किया है, जिससे भाषा मार्मिक एवं व्यंजक हो गयी है षड्जीवनिकाय - वध के कारणों के प्रसंग में श्लोकार्ध कितनी मार्मिक सूक्ति के रूप में प्रकट हुआ --- सातं गवेसमाणा, परस्स दुक्खं उदीरेंति- अर्थात् अपने सुख की गवेषणा में व्यक्ति दूसरों को दु:ख पहुंचाता है। परिशिष्ट सं. ८ में निर्युक्तिगत सूक्तियों का संकलन किया गया है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org