________________
मुखवस्त्रिका का शास्त्रीय स्वरूप और प्रयोजन
८३
ये नियुक्तिकार भद्रबाहु स्वामी तो चतुर्दश पूर्व के धारक हैं फिर इनकी प्रामाणिकता में तो सन्देह ही क्या है ? अच्छा अब इस विषय के नियुक्ति पाठ की ओर भी ध्यान दें। ओघनियुक्ति में इस विषय से सम्बन्ध रखने वाली दो गाथायें हैं । एक में मुंहपत्ति-मुखवस्त्रिका के परिमाण-माप या स्वरूप-आकार का वर्णन है और दूसरी में उसका प्रयोजन बतलाया गया है । यथा
"चउरंगुलं विहत्थी एवं मुहणंतगस्स उपमाणं ।
वितियं मुहप्पमाणं गणण पमाणेण एकेक" ॥७११॥ व्याख्या-चत्त्वायंगुलानि वितस्तिश्चेति, एतच्चतुरस्र मुखानन्तकस्य प्रमाणम् , अथवा इर्द द्वितीयं प्रमाणं यदुत मुखप्रमाणं कर्तव्यं मुहणंतयं, एतदुक्तं भवति-वमति प्रमार्जनादौ यथा मुखं प्रच्छाद्यते कृकाटिका पृष्टतश्च यथा ग्रंथितुं शक्यते तथा कर्तव्यम । वस्त्रं कोणद्वये गृहीत्वा यथा कृकटाया ग्रंथिर्दातुं शक्यते तथा कर्तव्यमिति एतद् द्वितीयं प्रमाणं-गणना प्रमाणेन पुनस्तदेकैकमेवमुखानन्तकं भवतीति । - इस गाथा में मुख वस्त्रिका का परिमाण-माप बतलाया है, जो चारों ओर से एक बेंत और ४ अंगुल
इस हो अर्थात १६ अंगुल लम्बी और १६ अंगुल चौड़ी हो ऐसी चार तहवाली मुखवत्रिका होती है यह मुखवत्रिका का एक माप है । दूसरा-उपाश्रय आदि का प्रमार्जन-प्रतिलेखन करते समय जिस मुखवस्त्रिका को त्रिकोण करके उसके दोनों कोणों को पकड़कर नासा और मुख ढका जावे और गर्दन के पीछे गांठ दी जावे इस प्रकार की मुखवस्त्रिका होनी चाहिये, यह उसका दूसरा माप या स्वरूप है । परन्तु इतना ध्यान रहे कि यहां पर मुखवत्रिका के जो दो स्वरूप या माप बतलाये हैं यह एक ही मुखवत्रिका के दो विभिन्न स्वरूप हैं वैसे गणना में तो मुखवस्त्रिका एक ही समझनी, दो नहीं । अब उसका प्रयोजन बतलाने वाली गाथा भी सुनिये:
"सम्पातिम रयरेणुपमज्जणट्ठा वयंति मुहपनि ।
नासंमुहं च बधइ तीए वसही पमज्जंतो' ।। ७१२ ॥ व्याख्या-संपातिम, सत्त्वरक्षणार्थ जल्पद्भिर्मुखे दीयते, तथा रजः सचित्त पृथिवीकायस्तत्प्रमार्जनार्थ मुखवस्त्रिका गृह्यते, तथा रेणु प्रमार्जनार्थ मुखवस्त्रिका ग्रहणं प्रतिपादयन्ति पूर्वर्षयः । तथा नासिका मुखं च बध्नाति तथा मुखवस्त्रिकया वसतिं प्रमार्जयन येन न मुखादौ रजः प्रविशतीति ।
इस गाथा का भावार्थ यह है कि बोलते समय उड़ते हुए जीवों का मुख में प्रवेश न हो इसलिये मुखवस्त्रिका को मुख के आगे रखकर बोलना । तथा पृथ्वीकाय के प्रमार्जन के लिये मुखवत्रिका का उपयोग करना अर्थात जो सूक्ष्म धूलि उड़कर शरीर पर पड़ी हुई हो उसके प्रमार्जन प्रतिलेखन के लिये मुखत्रिका का ग्रहण करना प्राचीन ऋषि मुनियों ने कहा है । एवं वसती-उपाश्रय श्रादि की पडिलहणा करते समय नाक
और मुख को आच्छादित करने-ढकने के लिये [जिससे कि सचित्त रज का मुखादि में प्रवेश न हो सके मुखवस्त्रिका ग्रहण करनी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org