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नवयुग निर्माता
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एक दिन आर्यसमाज और सनातनधर्म के अवतार तत्व पर विचार विनिमय के प्रसंग में पंडित कृष्णचन्द्रजी ने आचार्यश्री से पूछा कि महाराज ! आर्यसमाज के जन्मदाता स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सनातन धर्म के माने हुए अवतारवाद का प्रतिषेध करते हुए ईश्वर को सर्वथा निरंजन और निराकार बतलाया है परन्तु इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा है कि सृष्टि के बाद में ईश्वर ने अंगीरा प्रभृति चार ऋषियों को ऋग् यजुः साम अथवे इन चार वेदों का उपदेश दिया। अब इसमें विचार करने की इतनी बात है कि जब ईश्वर अशरीरी अथच निराकार है तो उसने उपदेश कैसे दिया ? उपदेश तो शरीरसापेक्ष है। बिना शरीर के न कोई उपदेश दे सकता है और न कोई सुन सकता है और सृष्टि के आद में चार ऋषियों का उत्पन्न होना भी युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता। वे ऋषि शरीरधारी थे, विना मैथुनी सृष्टि के वे कैसे उत्पन्न हुए ? कदाचित् दुर्जनतोष न्याय से उनका उत्पन्न होना मान भी लिया जाय तो इसमें भी क्या प्रमाण है कि ऋषियों का यह वेदादिज्ञान ईश्वर का ज्ञान है ? स्वामीजी के मन्तव्यानुसार एक मात्र ईश्वर ही सर्वज्ञ है उसके विना और कोई भी सर्वज्ञ नहीं हो सकता, तब इन अल्पज्ञ ऋषियों को सर्वज्ञ ईश्वर का कैसे ज्ञान हुआ ? एवं ये वेद ईश्वर का ज्ञान हैं या इन ऋषियों के मस्तिष्क की उपज है इसका निर्णय भी कैसे हो सकता है ? महाराज ! मुझे तो यह सब कुछ अब बिना सिर पैर का केवल कल्पना मात्र ही प्रतीत होता है।
. आचार्यश्री-भाई कृष्णचन्द्र ! असल बात तो यह है कि जबतक मनुष्य को दूसरे मतमतान्तर का भलीभांति ज्ञान न हो तबतक उसके हृदय में जिस किसी ने जो विचार भर दिये वह उन्हीं पर दृढ़ हो जाता है और उन्हीं को सर्वज्ञ का कथन समझने का आग्रह करने लगजाता है । स्वामी दयानन्द ने मतमतान्तरों का खंडन करते हुए उनके विचारों को समझने की तो बिलकुल कोशिश नहीं की, किन्तु मन में जो कुछ आया लिख दिया । परन्तु उन्हें लिखते समय यह भान नहीं रहा कि इस संसार में हमारे लिखे पर विचार करने वाले मनुष्य भी हैं और होंगे । पंडित भीमसेन शर्मा और पंडित ज्वालाप्रसादजी एक वक्त कट्टर आर्यसमाजी थे दोनों ही स्वामी दयानन्दजी के अनुगामी थे। परन्तु बाद में इन दोनों ने आर्यसमाज का परित्याग करके सनातन धर्म की प्रतिष्ठा के लिये भरसक प्रयत्न किया और स्वामी दयानन्द के आक्षेपों का भाषणों और लेखों द्वारा युक्तियुक्त निराकरण किया । इसलिये विचारशील पुरुष को हर एक विषय की पूरी पूरी जांच करके उसे अपनाने का प्रयास करना चाहिये ।
युवक कृष्णचन्द्र प्रतिदिन महाराज श्री के पास आकर घंटा दो घंटे बैठते और जैन सिद्धान्तों को समझने का प्रयास करते । महाराजश्री उसे हर एक बात को शंका समाधान पूर्वक स्पष्ट रूप से समझाने का यत्न करते । महाराजश्री लुधियाने में एक मास तक रहे, इतने समय में उन्होंने कृष्णचन्द्र को जैनधर्म के हर एक विषय से अवगत कर दिया।
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