Book Title: Navyuga Nirmata
Author(s): Vijayvallabhsuri
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 440
________________ अध्याय ११६ "लाला नत्थूमलजी का रहस्यगर्मित प्रश्न" सनखतरे के मन्दिर की प्रतिष्ठा का सारा कार्य सुचारु रूप से सम्पूर्ण होजाने के बाद प्रतिष्ठा महोत्सव पर आये हुए होशयारपुर के सुप्रसिद्ध धर्मात्मा श्रावक ला० गुजरमल और नत्थूमलजी आचार्यश्री को वन्दना करके उनके चरणों का स्पर्श करते हुए वहीं पर बैठ गये। कुछ क्षण मौन रहने के बाद ला० नत्थूमल ने आचार्यश्री से पूछा गुरुदेव ! क्या किसी श्रद्धालु श्रावक ने किसी प्राचार्य देव की उनके जीवनकाल में ही उनकी मूर्ति बनाकर प्रतिष्ठित की है ? आचार्यश्री- हां ! राजा कुमारपाल ने श्री हेमचन्द्राचार्य की मूर्ति उनके जीवन काल में ही प्रतिशित की थी। ला० नत्थूमल-तब तो गुरुदेव ! हमारा अभिलषित सिद्ध होगया ! आप इस युग के हेमचन्द्राचार्य हैं और मेरे यह मित्र ला० गुजरमलजी कुमारपाल । आचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि ने कुमारपाल को प्रतिबोध देकर धर्म का अनुरागी बनाया और प्रापश्री ने हम सबको धर्म पर दृढ़ किया । राजा कुमारपाल का आचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि में अनन्यानुराग था और हम सब आपश्री के चरणों के अनन्य पुजारी हैं । गुरु चरणों के जिस गुणानुराग ने कुमारपाल को प्राचार्यश्री की मूर्ति बनवाकर प्रतिष्ठित करने की उज्ज्वल प्रेरणा दी । वही गुरु चरणों का प्रशस्तराग ला० गुजरमलजी को अपने सद् गुरुदेव की भव्य मूर्ति बनवाकर मन्दिर में प्रतिष्ठित करने की सबल प्रेरणा दे रहा है । और इस विषय में आपश्री की क्या सम्मति है. यह पूछने का तो हमें इस वक्त अवकाश ही नहीं है । गुरुदेव ! जहां भक्तों को भगवान् की आज्ञा-शिरोधार्य करनी होती है वहां कभी २ भक्त भी भगवान से अपना कहा करा लेते हैं। इतना कहने के अनन्तर पास में बैठे हुए जयपुर के कारीगर को इशारा किया और उसने उठकर आचार्यश्री के शरीर की ऊंचाई और बैठक का माप ले लिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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