Book Title: Navyuga Nirmata
Author(s): Vijayvallabhsuri
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 454
________________ उपदेशबावनी ४२१ छरद करत फीर चाटत अनंत रीत जानत ना हित किंत श्वानदशा धरके, सुरी कुरी कुख परे नाना रूप पीर परे जात ही अगन जरे मरे दु:ख करके । कुगुरु कुदेव सेव जानत न तत्त भेव मान अहमेव मूढ कहे हम डरके, मिथ्यामति पातमसरूप न पिछाने ताते डोलत जंजालमें अनंत काल भ(म)रके ॥३०॥ जोर नार गरभसें मद (मोह) लोभ ग्रसे राग रंग जंग लसे रसक जीहान रे, मनकी तरंग फसे मान सनमान हसे खान पान धरमसें आतम अज्ञान रे । सिद्धि रिद्धि चित लावे पुतने विभुत भावे पुगलकु भोर धावे परो दुःखखान रे, करमको चेरो हुवो पास बांध झुर मुवो फेर मूढ कहेवे हम हुवो भ्रम(ब्रह्म) ज्ञान रे ॥३१।। जननी रोआई जेति जनमा(म) जनम धार आंसुनसे पारावार भरीए महान रे, आतम अज्ञान भरी चाटत छरद करी मनमे न थी(घी?)न परि भरे गंद खान रे। तिशना तिहोरी यारी छोरत न एक घरी भमे जग जाल लाल भुले निज थान रे, अंध मति मंद भयो तप तार छोर दयो फेर मूढ कहे हम हुवो ब्रह्मज्ञान रे ॥३२।। जलके विमल गुण दल के करम फुन हलके अटल धुन अघ जोर कसीए, टलके सुधार धार गलके मलिन भार छलके न पुरतान मोक्ष नार रसीए। चलके सुज्ञान मग छलके समर ठग मलके भरम जगजालमें न फसीए, थलके वसन हार खलके लगन टार टलके कनक नार आतभ दरसीए ।।३३।। टहके सुमन जेम महके सुवास तेम जहके रतन हेम ममताकुमारी हे, दहके मदनवन करके नगन तन गहके केवलधन पास वा(ना ?)स डारी हे। कहके सुज्ञानभान लहके अमर थान गहके अखर तान आतम उजारी हे, चहके उवार दीन राजमति पारकीन ऐसे संत ईश प्रभु (बाल) ब्रह्मचारी हे ॥३४।। ठोर ठोर ठानत विवाद पखपात मूढ जानत न मूर चूर सत मत वातकी, कनक तरंग करी श्वेत पीत भान परि स्यादवाद हान करी निज गुण घातकी। पर्यो ब्रह्मजाल गरे मिथ्यामत रीझ धरे रहत मगन मूढ जुरी भरे स्वातकी, आतमसरूपघाती मिथ्यामतरूपकाति ऐसो ब्रह्मघाति है मिथ्याति महापातकी ॥३।। डर नर पाप करी देत गुरु शिख खरी मान लो ए हित धरी जनम विहातु है, जोवन न नित रहे वाग गुल जाल महे श्रातम आनंद चहे रामा गीत गातु है। बके परनिन्दा जेति तके पर रामा तेती थके पुन्य सेती फेर मूढ मुसकातु है, अरे नर बोरे तोकु कहुरे सचेत होरे पिंजरेकु तोरे देख पंखी उड जातु है ॥३६।। ढोरवत रीत धरी खान पान तान करी पुरन उदर च(भ)री भार नित वह्यो है, पीत अनगल नीर करत न पर पीर रहत अधीर कहा शोध नही लह्यो है। वाल विन पल तोल भक्षाभक्ष खात घोल हरत करत होल पाप राच रह्यो है, शींग पुछ दाढी मुछ वात न विशेष कछु (कुछ) आतम निहार अछु(उछ) मोटा रूप कह्यो है ॥३७|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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