Book Title: Navyuga Nirmata
Author(s): Vijayvallabhsuri
Publisher: Atmanand Jain Sabha

Previous | Next

Page 413
________________ ३८२ नवयुग निर्माता स्थान है कि स्वयं फल भुक्ताने में सर्वथा असमर्थ इन जड़ रूप कर्मों में ईश्वर को प्रेरणा देने की शक्ति भी है कि नहीं ? यदि है, तो सर्वज्ञ सर्वव्यापक सच्चिदानन्द स्वरूप निराकार निर्विकार में कभी न सम्भव होने वाले इच्छा प्रयत्न को भी उत्पन्न कर देने की शक्ति होतो उनमें स्वयं फल भुक्ताने की शक्ति को स्वीकार कर लेने में आपत्ति क्यों ? इसके सिवा ईश्वर को आप सर्व स्वतंत्र और सर्व नियंता मानते हैं तो कर्मों द्वारा प्रेरित किये जाने से उसकी स्वतन्त्रता और सर्व नियंतृत्व को कोई बाधा तो नहीं पहुँचेगी ? प्रेर्य कभी स्वतंत्र नहीं हो सकता। इतनी बड़ी शक्ति को जड़ कर्मों की श्रृंखला में बांध देने की कल्पना तो केवल भोले जीवों को सन्तुष्ट भले कर सके । मुन्शीरामजी-आप भी तो कर्म और कर्मों के फल को मानते हैं । आपके मत में उसकी कैसे व्यवस्था है ? - श्राचार्यश्री -मानते हैं अवश्य मानते हैं, यह जीव अनेक प्रकार के निमित्तों द्वारा शुभ अथवा अशुभ कर्मों को स्वयं बांधता है और स्वयं ही निमित्तों द्वारा उनके फल को भोगता है । जैन दर्शन में कर्म का जो स्वरूप वर्णन किया है, उससे यदि आपका परिचय होता तो आपको कर्मों के बन्ध और फलोन्मुख होकर फल देने आदि के विषय में कर्मों के अतिरिक्त अन्य किसी व्यक्ति की कल्पना को अवकाश ही न मिलता ! परन्तु अब समय अधिक होगया यह विषय बड़ा गम्भीर है, इसलिये इसको आप किसी दूसरी मुलाकात के लिये रहने दीजिये। बहुत अच्छा महाराज कहते हुए दोनों ने नमस्ते कही और उत्तर में मिले हुए धर्म लाभ को प्राप्त कर उठते हुए लाला मुन्शीरामजी ने कहा-महाराज ! आज आप से वार्तालाप करके बहुत प्रसन्नता हुई । आपकी विषय प्रतिपादन शैली नितरां प्रशंसनीय है, और आपकी प्रकृति में जो सौजन्य और शान्त भाव देखने में आया उसका हम दोनों पर आपकी विद्वत्ता से भी अधिक प्रभाव पड़ा है। आपने आज ईश्वर कर्तृत्व के विषय का जो दार्शनिक विवेचन किया है उसपर हम विश्वास करें या न करें, परन्तु कोई भी दार्शनिक विद्वान् उसकी प्रशंसा किये बिना नहीं रहेगा। अच्छा महाराज नमस्ते ! फिर कभी दर्शन करने का यत्न करेंगे, इतना कहकर वे वहां से चलदिये । EUR Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478