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नवयुग निर्माता
दुःख फल भोगने आदि किसी भी अंश में स्वतंत्र नहीं ठहरता। जैसे घड़े के अच्छे या बुरे बनने का उत्तरदायित्व घट पर नहीं किन्तु कुम्हार पर है उसी प्रकार सृष्टि के गुण दोषयुक्त पदार्थों की रचना और उससे उत्पन्न होने वाले परिणाम आदि का उत्तरदायित्व भी रचयिता पर हो आता है । इसलिये सृष्टि के प्रत्येक व्यवहार की जिम्मेदारी स्रष्टा पर आती है । इसी आशय से जैन दर्शन ने ईश्वर परमात्मा को कर्ता या स्रष्टा न मानकर केवल ज्ञाता या साक्षीरूप स्वीकार किया है। वैदिक परम्परा के कापिल दर्शन और जैमनी के कर्मकाण्ड प्रधान मीमांसादर्शन के प्रामाणिक आचार्यों (कुमारिल भट्ट आदि ) ने ईश्वर कर्तृत्वयाद का इसी दृष्टि से प्रतिषेध किया है ।
इसके अतिरिक्त आपने जो कुछ फर्माया है उसका तात्पर्य तो यह प्रतीत होता है कि जीवों के शुभाशुभ कर्मों का फल भुगताने के लिये ईश्वर इस सृष्टि की रचना करता है, कर्म स्वयं जड़ हैं वे अपने आप फल दे नहीं सकते परन्तु ईश्वर को उनका फल भुगताना जरूरी है । इसलिये वह सृष्टि रचना में प्रवृत्त होता है । वह जीवों के जैसे कर्म होते हैं उसके अनुसार फल देता है। इसमें उसके ऊपर कोई दोष नहीं आता । जैसे किसी के अच्छे बुरे कर्तव्य के अनुसार दंड देने या मुक्त करने में किसी न्यायाधीश पर कोई आरोप नहीं श्राता उसी प्रकार कर्मानुसार फल देने में ईश्वर भी किसी प्रकार के दोष का भागी नहीं होता ।
परन्तु इस सारे युक्तिवाद पर यदि कुछ गम्भीरता से विचार किया जावे, और वस्तु स्वरूप अनुरूप तटस्थ मनोवृत्ति से विवेचन किया जावे तो ये ऊपर की सभी बातें सन्तोषजनक प्रतीत नहीं होती ।
सबसे पहले तो ईश्वर के स्वरूप पर ध्यान देने की आवश्यकता है, आपके मत में प्रकृति, जीव और ईश्वर ये तीन पदार्थ स्वतंत्र माने हैं, इनमें एक-प्रकृति- जड़ और दो-जीव ईश्वर - चेतन हैं, इनमें भी प्रकृति सत् जीव सत् चित् और ईश्वर सत् चित् आनन्द स्वरूप है, इसके सिवा ईश्वर को सर्वज्ञ सर्व व्यापक निराकार सृष्टि का कर्त्ता और जीवों के शुभाशुभ कर्मों का फल देने वाला भी स्वीकार किया है । क्यों ऐसा ही है न ?
ला० मुन्शीरामजी - हां महाराज ! स्वामीजी ने ऐसा ही माना है और हम भी ऐसा ही विश्वास रखते हैं !
आचार्यश्री - यह तो सब ठीक परन्तु ईश्वर के सच्चिदानन्द सर्वज्ञ सर्व व्यापक निराकार निरंजन द स्वरूप भूत गुणों के साथ उसके सृष्टिकर्तृत्व और फलप्रदातृत्व इन दो गुणों का साहचर्य भी सम्भव है कि नहीं, अर्थात् इनका बाकी के गुणों के साथ मेल भी रखता है कि नहीं, इस बात का विचार भी करना होगा | जो पदार्थ सच्चिदानन्द स्वरूप होगा, वह पूर्ण काम ही होगा, पूर्ण काम में इच्छा की कभी सम्भावना भी नहीं की जा सकती और जो सर्व व्यापक अथच निराकार है, वह निष्क्रिय ही होगा । क्रिया या
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