Book Title: Navyuga Nirmata
Author(s): Vijayvallabhsuri
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 421
________________ ३६० नवयुग निर्माता जिस रोचकता के साथ जैन नवयुवक श्रावक का व्याख्यान जो जैन दर्शन तथा चारित्र के सम्बन्ध में था, सुना गया और किसी का नहीं। श्रीयुत वीरचन्दजी गांधी अमरीका में दो वर्ष रहे, इन दो वर्षों में उन्होंने अमरीका के प्रसिद्ध २ नगरों यथा वाशिंगटन वोस्टन न्यूयार्क आदि में कुल मिलाकर ५३५ व्याख्यान दिये । कई एक व्याख्यानों में जनता की उपस्थिति हज़ारों तक होती थी । अनेक स्थानों पर जैनधर्म की शिक्षा का प्रबन्ध किया गया। बहुतोंने आपके व्याख्यानों से प्रभावित होकर मांस खाना छोड़ दिया और अनेकों ने जैनधर्म का श्रद्धान अंगीकार किया। वहां पर प्रचार करने के बाद श्रीयुत वीरचन्द राघवजी गांधी इङ्गलैंड, फ्रांस, और जर्मनी आदि देशों में जैन धर्म का प्रचार करते हुए जुलाई सन् १८६६ में वापिस भारत लौटे और बम्बई से सीधे अम्बाले में आकर आचार्यश्री को अपनी विदेश यात्रा का सारा वृतान्त सुनाया। तब इस कथन में जरा जितनी भी अतिशयोक्ति नहीं कि इस तरह विदेशों में जैनधर्म का जो प्रचार हुआ उसका सब श्रेय आचार्यश्री को प्राप्त है । अस्तु उक्त धर्म परिषद् की १७ दिन की सारी कार्यवाही की पुस्तक के रूप में जो रिपोर्ट छपी है, उसमें आचार्यश्री का फोटो देकर उसके नीचे इस प्रकार लिखा है - No man has so peduliarly soentified himself with the interests of the Jain community as "Muni Atmaramjee.'' He is one of the noble band sworn from the day of initiation to the end of life to work day and night for the high mission they have undertaken He is the high priest of the Jain commu and is recognised as the highest living "Authority" on Jain religion and litereture by oriental scholar. भावार्थ-जिस विशेषता से मुनि आत्मारामजी ने अपने को जैन धर्म में संयुक्त वा लीन किया है ऐसा किसी महात्मा ने नहीं किया । संयम ग्रहण करने के दिन से जीवन पर्यन्त जिन प्रशस्त महापुरुषों ने स्वीकृत धर्म में रत और सचेष्ट रखने का निश्चय वा नियम किया है उनमें से यह मुनिराज हैं, जैन धर्म के आप परम आचार्य हैं, तथा प्राच्य और पौरस्त्य विद्वान और जैनधर्म और जैन शास्त्रों के सम्बन्ध में सबसे उत्तम प्रमाण इस महर्षि को मानते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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