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अध्याय १०६
"जीरा में प्रतिष्ठा महोत्सव'
-:* :चातुर्मास की समाप्ति के बाद मार्गशीर्ष कृष्णा पंचमी के दिन अहमदाबाद ( गुजरात ) के पास में होने वाले बलाद नामाग्राम के वास्तव्य श्री डायाभाई को मुनि श्री वल्लभविजय के नाम से साधु धर्म की दीक्षा दी और श्री विवेक विजय नाम रखकर दूसरे ही दिन पट्टी से जीरा की तरफ विहार कर दिया । जीरा में पधारने पर वहां की जनता ने आपका कितना भव्य स्वागत किया और प्रवेश के समय उनके मन में कितना उत्साह था, इसका निश्चय उस समय पर गाये गये एक पंजाबी भाषा के भजन पर से बखूबी हो जाता है । यथा
चलो जी महाराज आये प्यारे, मात रूपादेवी जाए ।। अंचली ।। भाग उन्होंदे तेज. भये जब मूरि पदवी पाई । नगर प 1 में किया चौमासा, लोक सबी तर जाई ॥१॥ मुनि इगयारां संग उन्हांदे, एकसे एक सवाए । मेहरवान जब होए सबी तो, जीरे नगर उठ धाए ॥२॥ सुनी बात जब सब सेवक ने, मनमें खुशी मनाई। लगे शहर में बाजे बज्जण, ध्वजा निशान सजाई ॥३॥ धूम धाम से चले लैण को महमा कही न जाए। एक दूसरा चले अगाड़ी, आगे ही कदम उठाए ॥४॥ तीन कोस पर मिले सबी जा, चरणीं सीस नमाए । सीस उठाके दर्शन पाए, धन्य रूपदेवी जाए ॥५॥ सबी संघ होकर आनन्दी, तरफ शहर दी आए।
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