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अध्याय ४३
भावनगर के राजा साहक से मिलाफ
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और :
वेदान्त की चर्चा
शरीर पर की पुरानी कांचली को असार समझकर उतार फेंकने वाले अजगर की भांति ढूंढक मत के पुराने असार-अशास्त्रीय साधुवेष को त्यागकर शुद्ध जैन परम्परा के शास्त्रीय नवीन वेष को धारण करने के बाद श्री आत्मारामजी इस परम्परा में श्री श्रानन्दविजय इस नाम से विश्रुत होने लगे। अहमदाबाद के चातुर्मास में श्री शांतिसागर के फैलाये हुए अन्धकार को दूर करने में उन्हें जो सफलता प्राप्त हुई उससे उनकी कीर्ति शारदी पूर्णिमा के प्रकाश की तरह गुजरात में चारों ओर फैलगई । जनता उनके दर्शनों के लिये अधीर हो उठी । यह उनके श्रादर्श व्यक्तित्व की प्रारम्भिक विजय थी जिसमें उत्तरोत्तर प्रगति ही होती गई।
चातुर्मास पूरा होने पर गुरुजनों की आज्ञा से श्री आनन्दविजय जी ने अपने शिष्य परिवार के साथ अहमदाबाद से बिहार करके श्री शत्रुञ्जय और गिरनार आदि तीर्थों की पुनः यात्रा की, तथा विचरते २ भावनगर पधारे और वहां के जैन संघ की आग्रह भरी विनति को मान देते हुए १६३३ का चतुर्मास आपने भावनगर में किया।
आपके प्रतिदिन के धर्मप्रवचन में सैंकड़ों स्त्री पुरुष उपस्थित होते और धार्मिक लाभ उठाते । उनमें जैमों के अतिरिक्त अन्य धर्मानुयायी लोगों की संख्या भी काफी होती। उन दिनों भावनगर में श्रीआत्माराम
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