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अध्याय ६६
श्री प्रतापसिंहजी से कालाफ
आपश्री के जोधपुर पधारने का समाचार प्राप्त होने के बाद एक दिन जोधपुर नरेश के भाई श्री प्रतापसिंहजी आपके दर्शनों को आये। आते ही आपने नमस्कार किया और उत्तर में महाराज श्री ने धर्मलाभ दिया। श्री प्रतापसिंहजी-(महाराजश्री के सन्मुख उचित स्थान पर बैठने के बाद) महाराज! आप यहां पधारे यह हम सब का अहोभाग्य है परन्तु हमने जिस सदिच्छा को लेकर आपको यहां पधारने का कष्ट करने की प्रार्थना की थी वह तो सब स्वप्न होगया । हमार। सारा उत्साह नष्ट होगया । हमारी यह भावना थी कि इधर आप पधारेंगे और उधर स्वामीजी भी यहां आजावेंगे, दोनों महापुरुषों का कतिपय धार्मिक विषयों पर निर्णयात्मक वार्तालाप होगा और हम सब लोग उसे शांतिपूर्वक सुनेंगे और सुनकर किसी यथार्थ निश्चय पर पहुंचेंगे। मगर अफसोस ! कि श्री स्वामीजी यहां से अजमेर पहुंचते ही कुछ दिनों के बाद परलोक सिधार गये । और हमारी यह मिलाप की भावना फलीभूत न हो सकी।
__ श्री आनन्दविजयजी-(कुछ गम्भीरता से ) राजन् ! स्वामीजी की असामयिक मृत्यु का खेद तो अवश्य है परन्तु क्या किया जाय भाविभाव के आगे किसी का भी कुछ चारा नहीं चलता । इस जीवने अपने पूर्व भव में जितने आयु कर्म का बन्ध किया है उसके समाप्त हो जाने पर कोई भी इसको रख नहीं सकता। आयु कर्म के क्षय होने पर सब के लिये यही अन्तिम मार्ग है । यह अमिट अपरिहार्य है । इसीलिये मानव प्राणी को सचेत करते हुए शास्त्रकार कहते हैं -
अनित्यानि शरीराणि, विभवो नैव शाश्वतः ।
नित्यं संनिहितो मृत्युः, कर्तव्यो धर्मसंचयः ॥१॥ अर्थात् यह शरीर नाशवान है यह सांसारिक वैभव सदा स्थिर रहने वाला नहीं और मृत्यु हर समय पास में ही है ऐसा विचार कर इस मनुष्य को धर्म के संचय-उपार्जन की ओर प्रवृत्त होना चाहिये ।
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