Book Title: Navyuga Nirmata
Author(s): Vijayvallabhsuri
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 382
________________ महाशय लेखराम का समागम ३५१ h करना इस समय उचित प्रतीत होता है । जो व्यक्ति-[फिर वह किसी मतका प्रवर्तक हो अथवा सुधारक हो] अपने मनमें स्वमतानुराग के साथ परमत-विद्वेष की भावना रखता है, उसके कथन में सत्य का अंश बहुत कम होता है । इसीलिये शास्त्रकारों ने कहा है "याग्रहीवत निनीपति युक्तिं तत्रयत्रमतिरस्य निविष्टा । पक्षपातरहितस्यतु युक्तिस्तत्रयत्रमतिरेति निवेशम् ॥ अर्थात् आग्रही-अमुक बात ही सत्य है ऐसी दृढ़ धारणा वाला पुरुष तो अपनी मान्यता की ओर युक्ति को बैंचकर लेजाने की कोशिश करता है और जो पक्षपात से रहित है, वह युक्तियुक्त को ही स्वीकार करने का यत्न करता है । इसलिये स्वामीजी के कथन की चर्चा न करते हुए केवल वस्तु तत्त्व की यथार्थता की ओर ही लक्ष्य देने का यत्न करें। कौनसा मत या सम्प्रदाय ईश्वरवादी या अनीश्वरवादी एवं आस्तिक या नास्तिक है, इस विचार से पहले आस्तिक नास्तिक शब्द की शास्त्रीय परिभाषा और उसके परमार्थ को समझने की आवश्यकता है । अनीश्वरवाद या ईश्वरवाद तो पास्तिक नास्तिक शब्द के परमार्थ में ही गर्भित हो जाता है । “अस्तिनास्ति दिष्टंमतिः" इस पाणिय सूत्र और उस पर के महाभाष्य के अनुसार आस्तिक नास्तिक शब्द का सर्व सम्मत व्युत्पत्ति लभ्य अर्थ होता है-अस्ति परलोक इति मतिर्यस्य स श्रास्तिकः तविपरीतो नास्तिकः अर्थात् परलोक -आत्मा और उसके आवागमन को मानता है वह आस्तिक और इन दोनों से जो इनकार करता है वह नास्तिक है । आस्तिक नास्तिक शब्द की इस परिभाषा के अनुसार जो शरीर व्यतिरिक्त आत्मा के अस्तित्व को मानता है वह आस्तिक है और जो केवल शरीर को ही आत्मा मानकर उसके अतिरिक्त किसी अन्य चेतन सत्ता को स्वीकार नहीं करता वह नास्तिक है । यह इन दोनों शब्दों का परमार्थ है । संक्षेप में अनात्मवादी नास्तिक और आत्मवादी को आस्तिक कहते हैं। तब जो आत्मवादी है वह निश्चय से ही परमात्मा या ईश्वर को मानने वाला होगा। कारण कि आत्मवाद यह परमात्मवाद या ईश्वरवाद की मूलभित्ति है । और अनात्मवाद यह अनीश्वरवाद की आधारशिला है । इसलिये आत्मवाद में ईश्वरवाद और अनात्मवाद में अनीश्वरवाद गर्भित होजाते हैं। अनीश्वरवादी कभी आत्मवादी नहीं होता और श्रात्मवादी कभी अनीश्वरवादी नहीं होता। क्योंकि आत्मा की समस्त शक्तियों का पूर्ण विकास ही तो परमात्म तत्त्व या ईश्वरत्व है । जैन दर्शन आत्मा और उसके आवागम को मानता है और आत्मा के स्वरूप का निर्वचन, वह सोपाधिक और निरुपाधिक रूप से इस प्रकार करता है-कर्मजन्य उपाधि विशिष्ट श्रात्मा संसारी अथवा जीव कहलाता है इसलिये वह बद्ध है, और कर्मजन्य उपाधि से रहित अपने सच्चिदानन्द स्वरूप को प्राप्त करने वाला सर्वज्ञ सर्वदर्शी सिद्ध बुद्ध और मुक्त आत्मा की परमात्मा संज्ञा है । "कर्मबद्धो भवेद्जीवः कर्म मुक्तस्तुईश्वरः” इस अभियुक्तोक्ति के अनुसार आत्मा और परमात्मा के $ कहीं पर "कर्ममुक्तो भवेच्छिवः” ऐसा पाठ भी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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