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अध्याय ७३
"लीकड़ी के राजा साहिब से मेट"
पालीताणा से विहार करके शिष्य परिवार सहित शिहोर, वरतेज, भावनगर होते हुए आप घोघा बन्दर पधारे । वहां पर विरामान श्री नवखंडा पार्श्वनाथ की यात्रा करके वला और बोटाद होकर लींबड़ी शहर में पधारे । यहां पर तीन जिन मन्दिर और पांचसौ घर श्रावकों के हैं। यहां के श्री संघ ने आपका बड़े समारोह के साथ अनुपम स्वागत किया और आपके पधारने की खुशी में समवसरण की रचना आदि अनेक महोत्सव किये । आपके प्रति दिन के धर्म प्रवचन में सैंकड़ों स्त्री पुरुष उपस्थित होते और आपके उपदेशामृत का पान करते हुए अपने सद्भाग्य की भूरी २ सराहना करते । उपस्थित जनता में अन्य सम्प्रदाय के लोगों की भी पर्याप्त संख्या होती।
नगर की आम जनता में आपके धर्म उपदेश का इतना प्रभाव बढ़ा कि वहां के दरबार को भी आपके दर्शनों की उत्कंठा बढ़ी और वे एक दिन आपके दर्शनों के लिये आपके स्थान कर पधारे । आते ही आपने महाराज श्री को नमस्कार किया और उत्तर में महाराज श्री ने सप्रेम धर्म लाभ दिया ।
वहां पर उपस्थित श्रावक वर्ग ने भी राजा साहिब का समुचित स्वागत किया और वे महाराज श्री के सन्मुख एक आसन पर बैठगये और उनके साथ में आने वाले दो तीन पंडित भी वहां पर बिछाये हुए श्रासन पर बैठे।
राजासाहब विद्वानों के प्रेमी, शास्त्रों का स्वाध्याय करने वाले अच्छे विचारशील व्यक्ति थे । वैदिक परम्परा में आने वाली सम्प्रदायों का तो उनको अच्छा ज्ञान था परन्तु जैनधर्म के विषय में वे बहुत कम ज्ञान रखते थे और जैन मुनियों के संमर्ग में आने का उन्हें अवसर भी नहीं मिला था । महाराज श्री आनन्द विजयजी के सन्मुख बैठते ही उनकी वैराग्यगर्भित वेष भूषा और तेजोमयी अथच शान्त मुद्रा को
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