________________
हार्नल महोदय और आचार्य श्री
३३६
of this information I am indebted to Muni Atmaram ji ( Ananda Vijaya ji ) the well known and highly respected Sadhu of the Jain community throughout India and author of (among others) two very useful works in Hindi, tha Jain Tattvadarsha's mentioned in note 276 and the Ajnanatimira Bhaskara.
I have been placed in communication with him through the kindness of Mr. Magana Lal Dalapataram. My only regret is that I have not the advantage of his invaluable assistance from the very beginning of my work.
भावार्थ-तीसरे परिशिष्ट में मैंने कुछ अधिक सूचनायें प्रकट की हैं। जिनको मैं कई प्रतियां प्रकाशित होने के पश्चात् एकत्र कर सका हूँ । इस विज्ञप्ति के लिये मुनि महाराज श्री आत्माराम जी (आनन्द विजयजी) जो सकल भारतवर्ष में जैनों के प्रसिद्ध तथा माननीय आचार्य हैं, का आभारी हूँ। श्री जी कई एक पुस्तकों के लेखक हैं । जिनमें से जैन तत्वादर्श ( जिसका जिक्र नोट २७६ में है ) और अज्ञान तिमिर भास्कर दो लाभकारी पुस्तकें हैं । मेरा पत्र व्यवहार आपसे सेठ मगनलाल दलपतरामजी द्वारा हुआ। मुझे केवल इतना ही शोक है कि मैं पुस्तक के प्रारम्भ ही से आपकी सहायता का लाभ न उठासका । हार्नल महोदय ने उपासक दशासूत्र की जो प्रति आचार्य श्री को भेट की है, उसके मुख पृष्ट पर कृतज्ञता सूचक संस्कृत के चार श्लोक लिखे हैं, जो कि इस प्रकार है
"दुराग्रहध्धान्तविभेदभानो !, हितोपदेशामृतसिन्धुचित्त !। सन्देहसन्दोहनिरासकारिन् ! , जिनोक्तधर्मस्य धुरंधरोऽसि ॥१॥ अज्ञानतिमिरभास्करमज्ञाननिवृत्तये सहृदयानाम् । आहेत्तत्वादर्श ग्रंथमपरमपि भवानकृत ॥२॥ आनन्दविजय श्रीमन्नात्माराममहामुने ! । मदीय निखिलप्रश्नव्याख्यातः शास्त्र पारग ! ॥३॥ कृतज्ञता चिन्हमिदं ग्रन्थसंस्करणं कृतीन् । यत्नसम्पादितं तुभ्यं श्रद्धयोत्सृज्यते मया ॥४॥"
$ साहित्य रसिक संस्कृत के विद्वानों को हार्नल महोदय के इन चार श्लोंको में उनकी हृदयस्पर्शी विद्वत्ता का जो अपूर्व प्राभास होता है, उसके महत्व को वे ही जान सकते हैं । एक पाश्चात्य विद्वान् को इस प्रकार की संस्कृत रचना निस्सन्देह अभिनन्दनीय है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org