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नवयुग निर्माता
इस प्रकार लगभग पांच वर्ष तक गुजरात देश में भ्रमण करके आचार्य श्री ने धर्म का जो उद्योत किया वह उन्हीं के असाधारण व्यक्तित्व को आभारी है ।
अनेकों भव्यजीवों को प्रव्रज्यारूप नौका में बैठाकर संसार समुद्र से पार लंघाने का प्रयत्न किया, हजारों भव्यजीवों ने आपके सदुपदेश से नानाविध व्रत नियम और प्रत्याख्यानादि अंगीकार किये। इसके अतिरिक्त सैंकड़ों प्राचीन सद्ग्रन्थों को भंडारों से निकलवाकर उनकी नकलें कराई और उनका वाचन तथा संशोधन किया, जिनमें निम्नलिखित ग्रन्थ विशेष उल्लेखनीय हैं
शब्दाम्भोनिधि - गन्धहस्तीमहाभाष्य, वृत्ति विशेषावश्यक, वादार्णव सम्मतितर्क, प्रमाणप्रमेय मार्तण्ड, खंडनखंडखाद्य - वीरस्तव, गुरुतत्वविनिर्णय, नयोपदेशामृततरंगिणिवृत्ति, पचाशक सूत्रवृत्ति, अलंकार चूड़ामणि, काव्यप्रकाश, धर्मसंग्रहणी, मूलशुद्धि, दर्शनशुद्धि, जीवानुशासनवृत्ति, नवपदप्रकरण, शास्त्रवार्ताज्योतिर्विदाभरण, और अंगविद्या इत्यादि ।
समुच्चय,
ने उसे पांच सौ रुपये देकर विदा किया। जब यह बात आचार्य श्री को मालूम हुई तो उन्होंने चन्द्रविजय को डांटा और कहा कि श्रागे को ऐसा काम कभी नहीं करना, यह साधु धर्म और श्राचार के सरासर विरुद्ध कार्य है। कुछ समय बाद पाली में वह चन्द्रविजय का भाई अपनी माता को साथ लेकर आया, तब महाराज श्री ने चन्द्रविजय को कहा कि तू बार २ लिख कर अपने सम्बन्धियों को बुलाता है, यह तुमारे लिये ठीक नहीं है । सिरोही में तेरे कहने से दीवान मिलापचंद ने तेरे भाई को पांच सौ रुपये दिये व फिर तुमने अपनी माता और भाई को बुलाया है जो कि सर्वथा अनुचित श्रीर साधु के प्रचार के विरुद्ध है। यहां रुपये देने वाला कोई नहीं है, पहले जो सिरोही में दिये गये उनका तो मुझे पता नहीं लगा, परन्तु अब तो मैं सब कुछ जान गया हूँ। तुमने जो यह धंधा शुरु किया है वह सर्वथा अयोग्य है, हमारे साथ रहकर ऐसा नहीं हो सकेगा । याद रखना अब यदि किसी से तुमने रुपये दिलाने की कोशिश की तो इसका परिणाम तुम्हारे लिये अच्छा न होगा। | महाराज श्री की इस योग्य चेतावनी से न मालूम चन्द्रविजय के मन में क्या श्राया वह उसी रात्रि को अपना साधु वेष उतार और उपाश्रय में फैंक कर गृहस्थ का वेष पहन अपने भाई और माता के साथ रवाना हो गया । फिर कालान्तर में - सं० १६४७ में उसने श्री वीर विजयजी के पास आकर फिर दीक्षा ग्रहण की और चन्द्रविजय के स्थान से दानविजय नाम नियत हुआ । कालान्तर में श्री दानविजयजी पन्यास होकर सं० १६८१ में श्राचार्य श्री विजयकमलसूरि के पट्टधर शिष्य श्री लब्धिविजयजी के साथ छाणी ग्राम में आचार्य पदवी से अलंकृत हुए और प्यारडी जाते हुए रास्ते में स्वर्गवास हो गये । श्राचार्य दानसूरि के शिष्य प्रेमसूरि और उनके शिष्य रामचन्द्रसूरि ने दो तिथि का पंथ चलाकर जैन परम्परा में एक नया विभाग उत्पन्न करने का श्रेय प्राप्त किया । "विचित्रा गतिः कर्मणाम् "
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